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________________ किए जाएं तभी उस प्रकृति का बन्ध होता है। जैसे कि ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय कर्मों का बन्ध होता है। जब उन में से किसी का भी सेवन नहीं किया फिर उस का बन्ध कैसे हो सकता है ? उत्तर-कर्मों का बन्ध तो होता ही रहता है। प्रत्येक समय में सात या आठ कर्म संसारी जीव बांधता ही रहता है। आयुष्कर्म जीवन भर में एक ही बार बांधा जाता है। शेष सात कर्म समय-समय में बन्धते ही रहते हैं और उन का बंटवारा भी होता ही रहता है, किन्तु कर्मबन्ध के जो मुख्य-मुख्य कारण बताए हैं, उन के सेवन करने से तो अनुभागबन्ध अर्थात् फल में कटुता या मधुरता दीर्घकालिक स्थिति दोनों का बन्ध पड़ता है। यदि उन कारणों का सेवन न किया जाए तो रस में मन्दता रहती है और अल्पकालिक स्थिति होती है। प्रश्न-कर्मवर्गणा के पुद्गल क्या बन्ध होने से पूर्व ही पुण्यरूप तथा पापरूप में नियत होते हैं या अनियत ? उत्तर-नहीं। कर्मवर्गणा के पुद्गल न कोई पुण्यरूप ही हैं और न पापरूप ही। किन्तु शुभ अध्यवसाय से खींचे हुए कर्मपुद्गल अशुभ होते हुए भी शुभरूप में परिणमन हो जाते हैं, और अशुभ अध्यवसाय के द्वारा खींचे हुए कर्मपुद्गल शुभ होते हुए भी अशुभ बन जाते हैं। जैसे कि प्रसूता गौ सूखे तृण खाती है और उस को पीयूषवत् श्वेत तथा मधुर दुग्ध बना देती है। प्रत्युत उसी दुग्ध को कृष्णसर्प विषैला बना देता है। . ___ जैन सिद्धान्त मानता है कि वस्तु अनन्त पर्यायों का पिण्ड है। सहकारी साधनों को पाकर पर्याय बदलती है। कभी शुभ से अशुभ रूप में तो कभी अशुभ से शुभ रूप में हालतें बदलती ही रहती हैं, अर्थात् काल चक्र के साथ-साथ पर्यायचक्र भी घूमता रहता है। एवं कर्मपुद्गल भी सकर्मा आत्मा के शुभ अध्यवसाय को पाकर पुण्य तथा पाप रूप में परिणमन हो जाते हैं। पुण्य पाप के रस में तरतमता-शुभ योग की तीव्रता के समय पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग-रस की मात्रा अधिक होती है और पाप प्रकृतियों के अनुभाग की मात्रा हीन निष्पन्न होती है। इससे उलटा अशुभ योग की तीव्रता के समय पाप प्रकृतियों का अनुभागबन्ध अधिक होता है और पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग बन्ध न्यून होता है। शुभयोग की तीव्रतां में कषाय की मन्दता होती है और अशुभ योग की तीव्रता में कषाय की उत्कटता होती है, यह क्रम भी स्मरणीय है। कर्मबन्ध पर अनादि और सादि का विचार-आठों ही कर्म किसी विवक्षित संसारी जीव में प्रवाह से अनादि हैं। पूर्व काल में ऐसा कोई समय नहीं था कि जिस समय किसी एक 20 ] श्री विपाक सूत्रम् [कर्ममीमांसा
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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