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________________ का परस्पर क्षीरनीर भांति हिलमिल जाना बन्ध कहाता है। जीव का कर्म के साथ संयोग होने को बन्ध और उसके वियोग होने को मोक्ष कहते हैं। बन्ध का अर्थ वास्तविक रीति से सम्बन्ध होना यहां अभीष्ट है। ज्यों त्यों कल्पना से सम्बन्ध होना नहीं समझ लेना चाहिए। आगे चलकर वह बन्ध चार भागों में विभक्त हो जाता है, जैसे कि-प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध। इन में से प्रकृति तथा प्रदेश बन्ध मन, वाणी और काय के योग (परिस्पन्द-हरकत) से होता है। स्थिति और अनुभाग बन्ध कषाय से होता है। मन, वाणी और काय के व्यापार को योग कहते हैं। कार्मणवर्गणा के पुद्गलों का आत्मप्रदेशों पर छा जाना, यह योग का कार्य है। उन कर्मवर्गणा के पुद्गलों को दीर्घकाल तक या अल्प काल तक ठहराना और उन में दुःख-सुख देने की शक्ति पैदा करना, कटुक तथा मधुर, मन्द रस तथा तीव्र रस पैदा करना कषाय पर निर्भर है। जहां तक योग और कषाय दोनों का व्यापार चालू है, वहां तक कर्मबन्ध नहीं रुकता, बन्ध क्षय बिना जन्मान्तर नहीं रुकता, इसी प्रकार भवपरम्परा चलती ही रहती है। यहां एक प्रश्न पैदा होता है कि क्या भिन्न-भिन्न समय में भिन्न-भिन्न कर्मों का बन्ध होता है ? या एक समय में सभी कर्मों का बन्ध हो जाता है? इस का उत्तर यह है कि सामान्यतया कर्मों का बन्ध इकट्ठा ही होता है, परन्तु बन्ध होने के पश्चात् सातों या आठों कर्मों को उसी में से हिस्सा मिल जाता है। यहां खुराक तथा विष का दृष्टान्त लेना चाहिए। जिस प्रकार खुराक एक ही स्थान से समुच्चय ली जाती है, किन्तु उस का रस प्रत्येक इन्द्रिय को पहुँच जाता है और प्रत्येक इन्द्रिय अपनी-अपनी शक्ति के अनुकूल उसे ग्रहण कर उस रूप से परिणमन करती है, उसमें अन्तर नहीं पड़ता। अथवा किसी को सर्प काट ले तो वह क्रिया तो एक ही जगह होती है, किन्तु उस का प्रभाव विषरूपेण प्रत्येक इन्द्रिय को भिन्न-भिन्न प्रकार से समस्त शरीर में होता है, एवं कर्म बन्धते समय मुख्य उपयोग एक ही प्रकृति का होता है परन्तु उस का बंटवारा परस्पर अन्य सभी प्रकृतियों के सम्बन्ध को लेकर ही मिलता है। . जिस हिस्से में सर्पदंश होता है उस को यदि तुरन्त काट दिया जाए तो चढ़ता हुआ विष रुक जाता है, एवं आस्रवनिरोध करने से कर्मों का बंध पड़ता हुआ भी रुक जाता है। यथा अन्य किसी प्रयोग से चढ़ा हुआ विष औषधप्रयोग से वापस उतार दिया जाता है तथैव यदि प्रकृति का रस मन्द कर दिया जाए तो उस का बल कम हो जाता है। मुख्यरूपेण एक प्रकृति बन्धती है, और इतर प्रकृतियां उस में से भाग लेती हैं, ऐसा उनका स्वभाव है। प्रश्न-सूत्रों में कर्मबन्ध करने के भिन्न-भिन्न कारण बताए हैं, वे कारण जब सेवन कर्ममीमांसा] श्री विपाक सूत्रम् [19
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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