________________ उक्कोसं तिसागरो० णेरइयत्ताए उववन्ने। छाया-ततः स सुनन्दो राजा गोत्रासंदारकमन्यदा कदाचित् स्वयमेव कूटग्राहतया स्थापयति। ततः स गोत्रासो दारकः कूटग्राहो जातश्चाप्यभवत्, अधार्मिको यावत् दुष्प्रत्यानंदः। ततः स गोत्रासो दारकः कूटग्राहः प्रतिदिनं अर्द्धरात्रकालसमये एकोऽद्वितीयः सन्नद्धबद्धकवचो यावद् गृहीतायुधप्रहरणः स्वस्माद् गृहाद् निर्याति, यत्रैव गोमंडपस्तत्रैवोवा बहूनां नगरगोरूपाणां सनाथानां यावत् विकृन्तति, विकृत्य यत्रैव स्वं गृहं तत्रैवोपा० / ततः स गोत्रासः कूट० तैर्बहुभिर्गोमांसैः शूल्यैर्यावत् सुरां च 5 आस्वा० 4 विहरति / ततः स गोत्रासः कूट एतत्कर्मा प्र॰ [एतत्प्रधानः] कि [एतद्विद्यः] स० [एतत्समाचारः] सुबहु पापं कर्म समर्थे पंच वर्षशतानि परमायुः पालयित्वा आर्त्त-दुःखार्तोपगतः कालमासे कालं कृत्वा द्वितीयायां पृथिव्यां उत्कृष्टत्रिसागरोने नैरयिकतयोपपन्नः। पदार्थ-तते णं-तदनन्तर। से सुनंदे राया-उस सुनन्द नामक राजा ने। अन्नया कयातिअन्यदा कदाचित्-अर्थात् किसी अन्य समय पर / गोत्तासं दारयं-गोत्रास नामक बालक को। सयमेवस्वयं-अपने आप ही। कूडग्गाहत्ताए-कूटग्राहित्वेन-कूटग्राहरूप से। ठवेति-स्थापित किया। अर्थात् सुनन्द राजा ने गोत्रास को कूटग्राह के पद पर नियुक्त किया। तते णं-तदनन्तर / गोत्तासे-गोत्रास नामक। दारए-बालक। कूडग्गाहे-कूटग्राह। जाए यावि होत्था-हो गया अर्थात् कूटग्राह के नाम से प्रसिद्ध हो गया, परन्तु। अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे-वह बड़ा ही अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द-बड़ी कठिनाई से प्रसन्न होने वाला था। तते णं-तदनन्तर / से-वह / कूडग्गाहे-कूटग्राह / गोत्तासे-दारए-गोत्रास बालक। कल्लाकल्लिं-प्रतिदिन-हर रोज। अड्ढरत्तकालसमयंसि-अर्द्धरात्रि के समय। एगे-अकेला। अबीएजिस के साथ दूसरा कोई नहीं। सन्नद्धबद्धकवए-सन्नद्ध-सैनिक की भांति सुसज्जित एवं कवच बान्धे हुए। जाव-यावत्। गहियाउहपहरणे-आयुध और प्रहरण लेकर। सयातो-अपने। गिहातो-घर से। निज्जाति-निकलता है, निकल कर। जेणेव-जहां पर। गोमंडवे-गोमंडप है। तेणेव-वहां पर। उवाआता है, आकर। बहूणं-अनेक। णगरगोरूवाणं-नागरिक पशुओं के। सणाहाण-सनाथों के। जावयावत्। वियंगेति २-अंगों को काटता है और उनके अंगों को काट कर। जेणेव-जहां पर। सए गिहेअपना घर है। तेणेव-वहीं पर। उवा-आ जाता है। तते णं-तदनन्तर। से गोत्तासे कूड०-वह गोत्रास कूटग्राह। तेहिं-उन। बहूहिं-बहुत से। सोल्लेहि-शूलपक्व। गोमंसेहिं जाव-गो आदि यावत् नागरिक पशुओं के मांसों के साथ। सुरं च ५-सुरा आदि का। आसा० ४-आस्वादन आदि लेता हुआ। विहरति 1. "-यावत्-" पद से "अधर्मानुगः, अधर्मिष्ठः, अधर्माख्यायी,अधर्मप्रलोकी, अधर्मप्ररजनः, अधर्मशीलसमुदाचारः, अधर्मेण चैव वृत्तिं कल्पयन्, दुश्शीलः दुव्रत:-" इन शब्दों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन शब्दों की व्याख्या पीछे की जा चुकी है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [285