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________________ दस हजार वर्ष की है, तात्पर्य यह है कि प्रथम नरक-भूमि में गया हुआ जीव वहां अधिक से अधिक एक सागरोपम तक रह सकता है और कम से कम 10 हजार वर्ष तक रह सकता यहां पर मृगापुत्र के पहली से सातवीं भूमि में जाने तथा उनसे निकल कर अमुकअमुक योनि में उत्पन्न होने का जो क्रमबद्ध उल्लेख है उसका सैद्धान्तिक निष्कर्ष इस प्रकार समझना चाहिए असंज्ञी प्राणी मर कर पहली भूमि-नरक में उत्पन्न हो सकते हैं, आगे नहीं। भुजपरिसर्प, पहली दो भूमि तक, पक्षी तीन भूमि तक, सिंह चार भूमि तक, उरग पांचवीं भूमि तक, स्त्री छठी भूमि तक और मत्स्य तथा मनुष्य मर कर सातवीं नरक भूमि तक जा सकते हैं। तिर्यंच और मनुष्य ही नरक में उत्पन्न हो सकता है, देव और नारक नहीं। इसका कारण यह है कि उन में वैसे अध्यवसाय का सद्भाव नहीं होता। तथा नारकी मर कर फिर तुरन्त न तो नरक गति में पैदा होता है और न देवगति में, किन्तु वह मर कर सिर्फ तिर्यंच और मनुष्य गति में ही उत्पन्न हो सकता है। "- अद्धतेरस-जाति कुलकोडी-जोणि-पमुह-सत-सहस्साई-अर्द्ध-त्रयोदशजाति-कुल-कोटी योनि-प्रमुख-शतसहस्राणि-" इन पदों का भावार्थ है कि-मत्स्य आदि जलचर पंचेन्द्रिय जाति में जो योनियां-उत्पत्तिस्थान हैं, उन योनियों में उत्पन्न होने वाली 1. दसवर्ष-सहस्राणि प्रथमायां / तत्त्वार्थसूत्र, 4-44 / / 2. असण्णी खलु पढमं दोच्चं पि सिरीसवा, तइय पक्खी। सीहा जंति चउत्थिं, उरगा पुण पंचमि पुढविं॥ 1 // छटुिं च इत्थियाओ, मच्छा मणुआ य सत्तमिं पुढविं। एसो परमोवाओ, बोधव्वो नरगपुढ़वीणं // 2 // [प्रज्ञापना सूत्र, छठा पद] 3. नेरइए णं भंते ! नेरइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता नेरइएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! णो इणढे समढे। एवं निरंतरं जाव चउरिदिएसु पुच्छा, गोयमा ! नो इणटे समढे। नेरइए णं भंते ! नेरइहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता पंचिंदियतिरिक्ख-जोणिएसु उववज्जेज्जा ? अत्थेगतिए उववज्जेज्जा, अत्थेगइए नो उववज्जेज्जा................। नेरइए णं भंते ! नेरइहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता मणुस्सेसु उववजेज्जा ? गोयमा ! अत्थेगत्तिए उववज्जेज्जा, अत्थेगतिए णो उववज्जेज्जा। [प्रज्ञापना सूत्र 20 / 250] . 4. इन पदों की व्याख्या टीकाकार आचार्य अभयदेव सूरी के शब्दों में निम्नोक़्त है -."-जातौ पंचेन्द्रियजातौ या कुलकोटयः तास्तथा ताश्च ता योनिप्रमुखाश्च चतुर्लक्षसंख्यपञ्चेन्द्रियोत्पत्तिस्थानद्वारकास्ता जातिकुलकोटि-योनिप्रमुखाः, इह च विशेषणं परपदं प्राकृतत्वात्। इदमुक्तं भवति पञ्चेन्द्रियजातौ या योनयः तत्प्रभोः याः कुलकोट्यस्तासां लक्षाणि सार्द्धद्वादश प्रज्ञप्तानि, तत्र योनिर्यथा-गोमयः, तत्र चैकस्यामपि कुलानि विचित्राकारः कृम्यादयः।" प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [211
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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