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________________ के लिए खाने वालों का आहार पुण्योपार्जन में सहायक होता है। यही दृष्टि गौतम स्वामी के भोजन सम्बन्धी प्रश्न में अवस्थित है। छठा प्रश्न सुबाहुकुमार के कृत्यविषयक है। यह प्रश्न बड़े महत्त्व का है। मानव के प्रत्येक कृत्य-कार्य से दोनों की प्रकृतियों अर्थात् पुण्य और पाप की प्रकृतियों का बन्ध होता है। कर्मबन्ध का आधार मानव की भावना है। मानवीय विचारधारा की शुभाशुभ प्रेरणा से आस्रव संवर और संवर आस्रव हो जाता है। वास्तव में देखा जाए तो मानव की बाह्यक्रिया मात्र से वस्तुतत्त्व का यथार्थ निश्चय नहीं हो सकता। आत्मशुद्धि या उस की अशुद्धि की सम्पादिका मानवीय भावना है। इसी के आधार पर शुभाशुभ कर्मबन्ध की भित्ति प्रतिष्ठित है। सांसारिक कृत्यों-कार्यों से पाप-पुण्य इन दोनों का प्रादुर्भाव होता रहता है, परन्तु ज्ञानपूर्वकविवेक के साथ जिस काम के करने में पुण्यकर्मबन्ध होता है, उसी काम को यदि अज्ञानपूर्वक अर्थात् अविवेक से किया जाए तो उस में पापकर्म का बन्ध होता है। मनुष्य की प्रवृत्तियाँ उस की उन्नति एवं अवनति का कारण बना करती हैं। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि किसी भी कार्य को करने से पहले उस की कृत्यता तथा अकृत्यता का विचार कर ले। यदि कार्य कृत्यता से शून्य है तो उसे कभी नहीं करना चाहिए, चाहे कितना भी संकट आ पड़े। 'नीतिकारों ने इस तथ्य का पूरे जोर से समर्थन किया है, अतः जीवन को पापजनक प्रवृत्तियों से बचाना चाहिए और धर्मजनक प्रवृत्तियों को अपनाना चाहिए। श्री गौतम स्वामी के प्रश्न का भी यही अभिप्राय है कि सुबाहुकुमार ने विशुद्ध मनोवृत्ति से ऐसा कौन सा पुण्यजनक कृत्य किया। जिस के कारण आज वह प्रत्यक्षरूप में जगद्वल्लभ बना हुआ है। सातवां प्रश्न उस के समाचरण-शीलसम्बन्धी है। अर्थात् सुबाहुकुमार ने ऐसे कौन से शीलव्रत का आराधन या अनुष्ठान किया है, जिस के प्रभाव से उस को ऐसी सर्वोच्च मानवता की प्राप्ति हुई है। आजकल शील शब्द का व्यवहार बहुत संकुचित अर्थ में किया जाता है। उस का एकमात्र अर्थ पुरुष के लिए स्त्रीसंसर्ग का त्याग ही समझा जाता है, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। उस की अर्थपरिधि इस से बहुत अधिक व्यापक है। "स्त्रीसंसर्ग का त्याग" यह शील का मात्र एक आंशिक अर्थ है। इस से अतिरिक्त अर्थों में भी वह व्यवहृत होता है। 1. कर्त्तव्यमेव कर्त्तव्यं प्राणैः कण्ठगतैरपि।अकर्त्तव्यं न कर्त्तव्यं प्राणैः कण्ठगतैरपि॥ अर्थात्-जब प्राण कण्ठ में आ जाएं तब भी अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए, उस समय भी कर्तव्य को छोड़ना उचित नहीं है। इसके विपरित चाहे प्राण कण्ठ में आ जाएं तब भी अकर्त्तव्य कर्म का आचरण नहीं करना चाहिए। सारांश यह है कि कर्त्तव्यनिष्ठा में जीवनोत्सर्ग कर देना अच्छा है, परन्तु अकर्त्तव्य-अकृत्य को कभी भी जीवन में नहीं लाना चाहिए। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [871
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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