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________________ मुनिराजों को धर्म के पोषक समझ कर श्रद्धापूर्वक आहारादि का प्रदान करना। ९-किसी उपकार की आशा से किया गया दान करिष्यतिदान कहलाता है। __१०-किसी उपकार के बदले में किया गया दान कृतदान है। अर्थात् इस ने मुझे पढ़ाया है। इसने मेरा पालन पोषण किया है, इस विचार से दिया गया दान कृतदान कहलाता है। चौथा प्रश्न भगवान गौतम की-दस दानों में से सुबाहुकुमार ने कौन सा दान दिया था - इस जिज्ञासा का संसूचक है। पांचवां प्रश्न भोजन से सम्बन्ध रखता है। संसार में दो प्रकार के जीव हैं / एक वे हैं जो खाने के लिए जीते हैं, दूसरे वे जो जीने के लिए खाते हैं। पहली कक्षा के जीवों की भावना यह रहती है कि यह शरीर खाने के लिए बना है और संसार में जितने भी खाद्य पदार्थ हैं सब मेरे ही खाने के लिए हैं, इसलिए खाने-पीने में किसी प्रकार की कमी नहीं रखनी चाहिए। इस भावना के लोग न तो भक्ष्याभक्ष्य का विचार करते हैं और न समय कुसमय को देखते हैं। भोजन की शुद्धता या अशुद्धता का उन्हें कोई ध्यान नहीं रहता। जो लोग भक्ष्य और अभक्ष्य के विवेक से शून्य होते हैं, उन के लिए ही अनेकानेक मूक प्राणियों-पशुपक्षियों का वध किया जाता है, ऐसे मांसाहारी लोग इस बात का बिल्कुल ख्याल नहीं करते कि उन की भोजन-सामग्री कितने अनर्थ का कारण बन रही है ! वास्तव में देखा जाए तो संसार में पाप की वृद्धि भूखे मरने वालों की अपेक्षा खाने के लिए जीने वालों ने विशेष की है। यदि इन बातों को कहां ध्यान में लाते हैं। जो लोग जीने के लिए खाते अर्थात् भोजन करते हैं, उन का ध्येय यह नहीं होता कि हम खाकर शरीर को शक्तिशाली बनाएं और पापाचरण करें, किन्तु वे इसलिए खाते हैं कि जिस से उन का शरीर टिका रहे और वे उस के द्वारा अधिक से अधिक धर्म का उपार्जन कर सकें। उन को भक्ष्याभक्ष्य का पूरा-पूरा ध्यान रहता है, तथा वे इस बात के लिए सदा चिन्तित रहते हैं कि उन के भोजन के निमित्त किसी जीव को अनावश्यक कष्ट न पहुंचे और वे उस दिन की भी प्रतीक्षा में रहते हैं कि जिस दिन उन के निमित्त किसी भी जीव को किसी भी प्रकार का कष्ट न पहुंच सके। यद्यपि भोजन दोनों ही करते हैं परन्तु एक पापप्रकृति को बांधता है, जबकि दूसरा पुण्य का बन्ध करता है। इस प्रकार भोजन के लिए जीने वालों का आहार धर्म के स्थान में अधर्म का पोषक होता है और जीने 1. करिष्यति कंचनोपकारं ममाऽयमिति बुद्ध्या। यद्दानं तत्करिष्यतीति दानमुच्यते। 2. शतशः कृतोपकारो दत्तं च सहस्रशो ममानेन।अहमपि ददामि किञ्चित्प्रत्युपकाराय तद्दानम्॥ 3. मांसाहार धार्मिक दृष्टि से निन्दित है, गर्हित है, अतः हेय है, त्याज्य है तथा मनुष्य की प्रकृति के भी प्रतिकूल है आदि बातों का विचार प्रथमश्रुतस्कंधीय सप्तमाध्याय में कर आए हैं। 870 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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