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________________ संसूचित किया है, वह निम्नोक्त है- -सुहम्मे थेरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सुहम्मं थेरं वंदइ नमसइ, वन्दित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामि णं भंते ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे मासक्खमणपारणगंसि हत्थिणाउरेणगरे उच्चनीयमज्झिमघरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्तए ? अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करेह, तए णं सुदत्ते अणगारे सुहम्मेणं थेरेणं अब्भणुण्णाए समाणे सुहम्मस्स थेरस्स अंतियाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता अतुरियमचवलमसंभंते जुगंतरपलोयणाए दिट्ठीए पुरओ रियं सोहेमाणे जेणेव हत्थिणाउरे णगरे तेणेव उवागच्छइ, हत्थिणाउरे णयरे उच्चनीयमज्झिमकुलाइं। इन पदों का अर्थ निम्नोक्त है तपस्विराज श्री सुदत्त अनगार मासक्षमण के पारणे के दिन प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करते, दूसरे में ध्यान करते, तीसरे प्रहर में कायिक और मानसिक चपलता से रहित हो कर मुखवस्त्रिका की, भाजन एवं वस्त्रों की प्रतिलेखना करते, तदनन्तर पात्रों को झोली में रख कर और झोली को ग्रहण कर सुधर्मा स्थविर के चरणों में उपस्थित हो कर वन्दना तथा नमस्कार करने के अनन्तर निवेदन करते हैं कि हे भगवन् ! आप की आज्ञा होने पर मैं मासक्षमण के पारणे के लिए हस्तिनापुर नगर में उच्च-धनी, नीच-निर्धन और मध्यम-सामान्य गृहों में भिक्षार्थ जाना चाहता हूँ। सुधर्मा स्थविर के "-जैसे-तुम को सुख हो, वैसे करो, परन्तु विलम्ब मत करो-" ऐसा कहने पर वे सुदत्त अनगार श्री सुधर्मा स्थविर के पास से चल कर कायिक तथा मानसिक चपलता से रहित अभ्रान्त और शान्तरूप से तथा स्वदेहप्रमाण दृष्टिपात कर के ईर्यासमिति का पालन करते हुए जहां हस्तिनापुर नगर था वहां पहुंच जाते हैं, और निम्न तथा मध्यम स्थिति के कुलों में-। -सुहम्मे थेरे आपुच्छइ-सुधर्मणः स्थविरानापृच्छति। अर्थात् सुदत्त मुनि सुधर्मा स्थविर को पूछते हैं / इस पाठ के स्थान में यदि "-धम्मघोसे थेरे आपुच्छइ-" यह पाठ होता तो बहुत अच्छा था। कारण कि प्रकृत में सुधर्मा स्थविर का कोई प्रसंग नहीं है। कथासन्दर्भ के आरम्भ में भी सूत्रकार ने सुदत्त मुनि को धर्मघोष स्थविर का अन्तेवासी बताया है। अतः 1. संयमशील संसारत्यागी मुनि की दृष्टि में धनी और निर्धन, ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय और शूद्र सब बराबर हैं, पर यदि इन में आचारसम्पत्ति हो। साधु के लिए ऊंच और नीच का कोई भेदभाव नहीं होता। उच्च, नीच और मध्यमकुल में भिक्षार्थ साधु का भ्रमण करना शास्त्रसम्मत है। अतः उच्चकुल में गोचरी करना और नीच कुल में या सामान्य कुल में न करना साधुधर्म के विरुद्ध है। साधु प्राणिमात्र पर संमभाव रखते हैं, किन्तु जो आचारहीन हैं तथा आचारहीनता के कारण लोक में अस्पृश्य या घृणित समझे जाते हैं, उन के यहां भिक्षार्थ जाना लोकदृष्टि से निषिद्ध है। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [883
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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