________________ है? महाराज श्रेणिक ने जो कुछ किया वह अपने वैभव के अनुसार ही किया है, ऐसा करने से व्यवहारसम्बन्धी अकुशलता की कोई बात नहीं है। बड़ों की खुशी में छोटों को खुशी का अवसर न मिले तो बड़ों की खुशी का तथा उन के बड़े होने का क्या अर्थ ? कुछ नहीं। संभव है इसीलिए आजकल भी दीक्षार्थी के केशों को थाली में रख कर नाई सभी उपस्थित लोगों से दान देने के लिए प्रेरणा करता है और लोग भी यथाशक्ति उस की थाली में धनादि का दान देते हैं। धार्मिक हर्ष में दानादि सत्कार्यों का पोषित होना स्वाभाविक ही है। इस में विसंवाद वाली कोई बात नहीं है। प्रश्न-मेघकुमार की दीक्षा से पूर्व ही उसके माता-पिता वहां से चले गये, दीक्षा के समय वहां उपस्थित क्यों नहीं रहे ? उत्तर-माता-पिता का हृदय अपनी संतति के लिए बड़ा कोमल होता है। जिस सन्तति . को अपने सामने सर्वोत्तम वेशभूषा से सुसज्जित देखने का उन्हें मोह है, उसे वे समस्त वेशभूषा को उतार कर और अपने हाथों से केशों को उखाड़ते हुए भी देखें, यह माता-पिता का हृदय स्वीकार नहीं कर सकता, यही कारण है कि वे दीक्षा से पूर्व ही चले गए। प्रस्तुत सूत्र में यह वर्णन किया गया है कि श्रमणोपासक श्री सुबाहुकुमार ने विश्ववन्द्य, दीनानाथ, पतितपावन, चरमतीर्थंकर, करुणा के सागर भगवान् महावीर की धर्मदेशना को सुन कर संसार से विरक्त हो कर उन के चरणों में प्रव्रज्या ग्रहण कर ली, गृहस्थावास को त्याग कर मनिधर्म को स्वीकार कर लिया। मुनि बन जाने के अनन्तर सुबाहुकुमार का क्या बना, इस जिज्ञासा की पूर्ति के लिए अब सूत्रकार महामहिम मुनिराज श्री सुबाहुकुमार की अग्रिम जीवनी का वर्णन करते हैं मूल-तएणं से सुबाहू अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अन्तिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, बहूहिं चउत्थ० तवोविहाणेहिं अप्पाणं भावेत्ता, बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता सर्टि भत्ताइं अणसणाए छेदित्ता आलोइयपडिक्कन्ते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववन्ने।सेणं तओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता माणुस्सं विग्गहं लभिहिइ लभिहित्ता केवलं बोहिं बुज्झिहिइ बुज्झिहित्ता तहारूवाणं थेराणं अन्तिए मुंडे जाव पव्वइस्सइ। से णं तत्थ बहूई 938 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध