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________________ पाठ की सूचना चतुर्थ अध्याय में दी जा चुकी है। ___ सारांश यह है कि संसार में दो तरह के प्राणी होते हैं, एक वे जो काम करने से पूर्व उस के परिणाम का विचार करते हैं, उस से निष्पन्न होने वाले हानिलाभ का ख्याल करते हैं। दूसरे वे होते हैं, जो बिना सोचे और बिना समझे ही काम का आरम्भ कर देते हैं, वे यह सोचने का भी उद्योग नहीं करते कि इस का परिणाम क्या होगा, अर्थात् हमारे लिए यह हितकर होगा या अहितकर। इन में पहली श्रेणी के लोग जितने सुखी हो सकते हैं, उससे कहीं अधिक दुःखी दूसरी श्रेणी के लोग होते हैं। धन्वन्तरि वैद्य यदि रोगियों को मांसाहार का उपदेश देने से पूर्व, तथा स्वयं मांसाहार एवं मदिरापान करने से पहले यह विचार करता कि जिस तरह मैं अपनी जिह्वा के आस्वाद के लिए दूसरों के जीवन का अपहरण करता हूँ, उसी तरह यदि कोई मेरे जीवन के अपहरण करने का उद्योग करे तो मुझे उस का यह व्यवहार सह्य होगा या असह्य, अगर असह्य है तो मुझे भी दूसरों के मांस से अपने मांस को पुष्ट करने का कोई अधिकार नहीं है। "जीवितं यः स्वयं चेच्छेत्, कथं सोऽन्यं प्रघातयेत्" इस अभियुक्तोक्ति के अनुसार मुझे इस प्रकार के सावध अथच गर्हित व्यवहार तथा आहार से सर्वथा पृथक् रहना चाहिए-तो उस का जीवन इतना संकटमय न बनता। इसलिए प्रत्येक प्राणी को कार्य करते समय अपने भावी हित और अहित का विचार अवश्य कर लेना चाहिए। भावी हिताहित के विचारों को कविता की भाषा में कितना सुन्दर कहा गया है- * सोच करे सो सूरमा, कर सोचे सो सूर।' वांके सिर पर फूल हैं, वांके सिर पर धूल॥ इस दोहे में कवि ने कितने उत्तम सारगर्भित विचारों का समावेश कर दिया है। कवि का कहना है कि जो व्यक्ति किसी कार्य को करने से पहले उससे उत्पन्न होने वाले हानि-लाभ को ध्यान में रखता है, उसे दृष्टि से ओझल नहीं होने देता, वह सूरमा-वीर कहलाता है। इस के विपरीत जो बिना सोचे बिना समझे किसी काम को कर डालता है या किसी भी काम को करने के अनन्तर उसका दुष्परिणाम सामने आने पर सोचता है, वह सूर-अन्धा कहा जाता है। वीर के सिर पर फूलों की वर्षा होती है जबकि अन्धे के सर पर धूल की। इसे एक उदाहरण से समझिए सदाचार की सजीव मूर्ति धर्मवीर सुदर्शन को जब महारानी अभया के आदेश से दासी रम्भा पौषधशाला से चम्पा के राजमहलों में उठा लाती है और सोलह शृंगारों द्वारा इन्द्राणी के समान सौन्दर्य की प्रतिमा बनी हुई महाराणी अभया उनके सामने अपने वासनामूलक विचारों को प्रकट करती है तथा हावभाव के प्रदर्शन से उनके मानसमेरु को कम्पित करना चाहती है, 616] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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