________________ भावनापूर्वक निर्दोष आहार जीवन के विकास का कारण बनता है और परम्परा से इस मानव प्राणी को जन्म-मरण के बन्धनों से मुक्ति दिलवाकर परमसाध्य निर्वाणपद को उपलब्ध कराने में महान सहायता प्रदान करता है। अतः मुमुक्षु प्राणियों को सुपात्रदान का अनुसरण एवं आचरण करना चाहिए, यही इस अध्याय में वर्णित जीवनवृत्तान्त से ग्रहणीय सार है। ॥सप्तम अध्याय समाप्त॥ 982 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय द्वितीय श्रुतस्कंध