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________________ पुरुष। पुव्वभवे-पूर्वभव में। के-कौन। आसि ?-था? जाव-यावत्। विहरति ?-समय बिता रहा है ? मूलार्थ-तदनन्तर भगवान् गौतम के हृदय में उस पुरुष को देख कर यह संकल्प उत्पन्न हुआ यावत् वे नगर से बाहर निकले तथा भगवान् के पास आकर निवेदन करने लगे-भगवन् ! मैं आप की आज्ञानुसार नगर में गया, वहां मैंने एक पुरुष को देखा यावत् भगवन् ! वह पुरुष पूर्वभव में कौन था? जो कि यावत् विहरण कर रहा है-कर्मों का फल पा रहा है? ___टीका-पूर्वसूत्र में सूत्रकार ने एक ऐसे पुरुष का वर्णन किया है, जिसे राजकीय पुरुषों ने बेड़ियों से जकड़ रक्खा था, तथा जिस को बड़ी कठोरता से पीटा जा रहा था। उसे जब पतित-पावन भगवान् गौतम ने देखा तो देखते ही उनका रोम-रोम करुणाजन्य पीड़ा से व्यथित हो उठा और उनके मानस में इस प्रकार के विचार उत्पन्न हुए कि अहो ! यह पुरुष कितनी भयानक वेदना को भोग रहा है ! यह ठीक है कि मैंने नरकों को नहीं देखा है किन्तु इस पुरुष की दशा तो नारकियों जैसी ही प्रतीत हो रही है। तात्पर्य यह है कि जैसे नरक में नारकी जीवों को परमाधर्मियों के द्वारा दुःख मिलता है, वैसे ही इस पुरुष को इन राजपुरुषों के द्वारा मिल रहा है। _____ अज्ञानी जीव कर्म करते समय कुछ नहीं सोचता किन्तु जिस समय उस को उसका फल भोगना पड़ता है, उस समय वह अपने किए पर पश्चात्ताप करता है, रोता और चिल्लाता है। पर फिर कुछ नहीं बनने पाता इत्यादि विचारों में निमग्न हुए गौतम स्वामी पुरिमताल नगर से निकले और ईर्यासमिति-पूर्वक गमन करते हुए भगवान् महावीर स्वामी के पास पहुंचे, पहुंच कर वन्दना नमस्कार करने के बाद उन्हें उक्त सारा वृत्तान्त कह सुनाया और विनय-पूर्वक उस वध्य व्यक्ति के पूर्वभव सम्बन्धी वृत्तान्त को जानने की अभिलाषा प्रकट की। "अज्झथिए.५" यहां पर दिए गए 5 के अंक से -चिंतिए, कप्पिए, पत्थिए, मणोगए, संकप्पे-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों की व्याख्या पीछे की जा चुकी है। "समुप्पन्ने जाव तहेव"-यहां पठित "-जाव-यावत्-" पद से "-अहो णं इमे पुरिसे पुरा पोराणाणं दुच्चिण्णाणं दुप्पडिक्कन्ताणं असुभाणं पावाणं कडाणं कम्माणं पावगं फलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणे विहरति।न मे दिट्ठा नरगा वा नेरइया वा पच्चक्खं खलु अयं पुरिसे नरयपडिरूवियं वेयणं वेएति त्ति कट्ट पुरिमताले णगरे उच्चनीयमज्झिमकुलेसुअडमाणे अहापजत्तं समुयाणं गिण्हइ 2 त्ता पुरिमतालस्स नगरस्स मज्झंमज्झेणं निग्गच्छति 2 जेणेव समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामन्ते प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [355
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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