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________________ गमणागमणाए पडिक्कमइ 2 त्ता एसणमणेसणे अलोएइ 2 त्ता भत्तपाणं पडिदंसेइ 2 त्ता समणं भगवं महावीरं वन्दति नमंसति 2 त्ता- इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है, इन का भावार्थ निम्नोक्त है खेद है कि यह बालक पहले प्राचीन दुश्चीर्ण-दुष्टता से उपार्जन किए गए, दुष्प्रतिक्रान्तजो धार्मिक क्रियानुष्ठान से नष्ट नहीं किए गए हों ऐसे अशुभ, पापमय, किए हुए कर्मों के पापरूप फलवृत्तिविशेष-फल का प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करता हुआ समय बिता रहा है। नरक तथा नारकी मैंने नहीं देखे / यह पुरुष नरक के समान वेदना का अनुभव करता हुआ प्रतीत हो रहा है। ऐसा विचार कर भगवान् गौतम पुरिमताल नगर के उच्च, नीच तथा मध्यम कुलों में भिक्षा के लिए भ्रमण करते हुए यथेष्ट सामुदानिक-अनेकविध घरों से उपलब्ध भिक्षा ग्रहण कर पुरिमताल नगर के मध्य में से होकर निकलते हैं और जहां पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे वहां आते हैं और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समीप बैठ कर गमनागमन का प्रतिक्रमण (दोष निवृत्ति) करते हैं। एषणीय (निर्दोष) और अनेषणीय (सदोष) की आलोचना (चिन्तन या प्रायश्चित के लिए दोषों को गुरु के सन्मुख रखना) करते हैं। आलोचना कर के भगवान् को आहार-पानी दिखाते हैं। दिखा कर प्रभु को वन्दना तथा नमस्कार करके, वे इस प्रकार निवेदन करने लगे। "तं चेव जाव से" यहां पठित "जाव-यावत्" षद से "-तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे पुरिमताले नयरे उच्चनीयमज्झिमाणि कुलाणि घरसमुदापास्स भिक्खायरियाए अडमाणे जेणेव रायमग्गे तेणेव समोगाढे, तत्थ णं बहवे हत्थी पासामि बहवे आसे पासामि- से लेकर-रुहिरपाणं च पाएंति, तं पुरिसं पासामि 2 अयं एयारूवे अज्झथिए 5 समुप्पन्ने-अहो णं इमे पुरिसे पुरा पोराणं दुच्चिण्णाणं -से लेकर -नरयपडिरूवियं वेयणं वेएति-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। परन्तु इतना ध्यान रहे कि जहां पहले पाठों में "पासति" यह पाठ आया है वहां इस प्रकरण में "पासामि" इस पद की संकलना की गई है। क्योंकि पहले वर्णन में तो सूत्रकार स्वयं भगवान् गौतम स्वामी का परिचय करा रहे हैं। जब कि इस वर्णन में भगवान् गौतम स्वयं अपना वृत्तान्त प्रभु वीर के चरणों में सुना रहे हैं। ऐसी स्थिति में "पासामि" (देखता हूं) ऐसे प्रयोग की संकलना करनी ही होगी, तभी पूर्वापर अर्थ की संगति हो सकती है। "आसि ? जाव विहरति" यहां पठित "जाव-यावत्" पद से-"-किंनामए वा किं गोत्तए वा कयरंसि गामंसि वा नगरंसि वा किं वा दच्चा किं वा भोच्चा किं वा समायरित्ता केसिं वा पुरा पोराणाणं दुच्चिण्णाणं दुप्पडिक्कन्ताणं असुहाणं पावाणं 356 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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