________________ तब यदि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पूर्वानुपूर्वी यावत् गमन करते हुए, यहां पधारें तो मैं श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास मुण्डित होकर प्रव्रजित हो जाऊं-दीक्षा धारण कर लूं। - टीका-दर्भसंस्तारक-'कुशा के आसन पर बैठ कर पौषधोपवासव्रत को अंगीकार कर के धर्म चिन्तन में लगे हुए श्री सुबाहुकुमार के हृदय में एक शुभ संकल्प उत्पन्न होता है। जिस का व्यक्त स्वरूप इस प्रकार है धन्य हैं वे ग्राम, नगर, देश और सन्निवेश आदि स्थान जहां पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का विचरना होता है। वे राजा, महाराजा और सेठ साहुकार भी बड़े पुण्यशाली हैं जो श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में मुंडित हो कर दीक्षा ग्रहण करते हैं और जो उन के चरणों में उपस्थित हो पंचाणुव्रतिक गृहस्थधर्म को अंगीकार करते हैं, वे भी धन्य हैं। उन के चरणों में रह कर धर्मश्रवण का सौभाग्य प्राप्त करने वाले भी धन्य हैं। यदि सद्भाग्य से भगवान् यहां पधारें तो मैं भी उन के पावन श्रीचरणों में उपस्थित हो कर संयमव्रत को अंगीकार करूं। सुबाहुकुमार का संकल्प कितना उत्तम और कितना पुनीत है यह कहने की आवश्यकता नहीं। तरणहार जीवों के संकल्प प्रायः ऐसे ही हुआ करते हैं, जो स्व और पर दोनों के लिए कल्याणकारी हों / हृदय के अन्दर जब सात्विक उल्लास उठता है तो साधक का मन विषयासक्त न हो कर आत्मानुरक्तं होने का यत्न करता है और तदनुकूल साधनों को एकत्रित करने का प्रयास करता है। पौषधशाला के प्रशान्त प्रदेश में एकाग्र मन से धर्मध्यान करते हुए सुबाहुकुमार के हृदय में उक्त प्रकार के संकल्प का उत्पन्न होना उस के मानव जीवन के सर्वतोभावी आध्यात्मिक विकास को उपलब्ध करने की पूर्वसूचना है। परिणामस्वरूप इस के अनुसार . प्रवृत्ति करता हुआ वह अवश्य उसे प्राप्त करने में सफलमनोरथ होगा। . प्रश्न-श्री सुबाहुकुमार ने यह विचार किया कि यदि भगवान् हस्तिशीर्ष नगर में पधारेंगे तो मैं उन के पास दीक्षित हो जाऊंगा। इस पर यह आशंका होती है कि सुबाहुकुमार भगवान् के पास स्वयं क्यों न चला गया अथवा उसने भगवान् के पास कोई निवेदनपत्र ही क्यों न भेज दिया होता जिस में यह लिख दिया होता कि मैं दीक्षा लेना चाहता हूँ, अत: आप यहां 1. सुबाहुकुमार का रेशम आदि के नर्म और कोमल आसन को त्याग कर कुशा के आसन पर बैठ कर धर्म का आराधन करना उस की धर्ममय मनोवृत्ति की दृढता को तथा उस की सादगी को सूचित करता है। साधक व्यक्ति में देहाध्यास (देहासक्ति) की जितनी कमी होगी उतनी ही उस की विकासमार्ग की ओर प्रगति होगी। इस के अतिरिक्त कुशासन पर बैठने से अभिमान नहीं होता और इस में यह भी गुण है कि उस से टकरा कर जो वायु निकलती है, उस से योगसाधन में बड़ी सहायता मिलती है। वैदिक परम्परा में कुशा का बड़ा महत्त्व प्राप्त है। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [913