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________________ यत्र श्रमणो भगवान् महावीरो विहरति। धन्यास्ते राजेश्वर० ये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके मुंडा यावत् प्रव्रजन्ति, धन्यास्ते राजेश्वर० ये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके पञ्चाणुव्रतिकं यावद् गृहिधर्मं प्रतिपद्यन्ते, धन्यास्ते राजेश्वर ये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके धर्मं शृण्वन्ति, तद् यदि श्रमणो भगवान् महावीरः पूर्वानुपूर्व्या यावद् द्रवन् इहागच्छेत् यावद् विहरेत्, ततोऽहं श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके मुंडो भूत्वा यावत् प्रव्रजेयम्। पदार्थ-तए णं-तदनन्तर / तस्स-उस। सुबाहुस्स-सुबाहु / कुमारस्स-कुमार को। पुव्वरत्तावरत्तकाले-मध्यरात्रि में। धम्मजागरियं-धर्मजागरण-धर्मचिन्तन में। जागरमाणस्स-जागते हुए को। इमे-यह। एयारूवे-इस प्रकार का। अज्झत्थिए ४-संकल्प 4 / समुप्पज्जित्था-उत्पन्न हुआ। धन्ना णं-धन्य हैं। ते-वे।गामागर-ग्राम, आकर। जाव-यावत् / सन्निवेसा-सन्निवेश। जत्थ णं-जहां। समणेश्रमण।भगवं-भगवान् / महावीरे-महावीर स्वामी।विहरइ-विचरते हैं। धन्नाणं-धन्य हैं / ते-वे। राईसरराजा, ईश्वर आदि। जे णं-जो। समणस्स भगवओ महावीरस्स-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के। अंतिए-पास। मुंडा-मुंडित हो कर। जाव-यावत्। पव्वयंति-दीक्षा ग्रहण करते हैं। धन्ना णं-धन्य हैं। ते-वे। राईसर-राजा और ईश्वरादि। जे णं-जो। समणस्स भगवओ महावीरस्स-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के। अंतिए-पास। पंचाणुव्वइयं-पंचाणुव्रतिक। गिहिधम्म-गृहस्थधर्म को। पडिवजंति-स्वीकार करते हैं। धन्ना णं-धन्य हैं / ते-वे। जे णं-जो। समणस्स भगवओ महावीरस्स-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के। अंतिए-समीप। धम्म-धर्म का। सुणंति-श्रवण करते हैं। तं-अतः। जइ णं-यदि। समणेश्रमण। भगवं-भगवान्। महावीरे-महावीर। पुव्वाणुपुव्विं-पूर्वानुपूर्वी-क्रमशः / जाव-यावत् / दूइजमाणेगमन करते हुए। इहमागच्छेज्जा-यहां आ जाएं। जाव-यावत्। विहरिज्जा-विहरण करें। तए णं-तब। अहं-मैं। समणस्स भगवओ महावीरस्स-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के। अंतिए-पास / मुंडे-मुंडित। भवित्ता-हो कर। जाव-यावत्। पव्वएज्जा-प्रव्रजित हो जाऊं-दीक्षा ग्रहण कर लूं। मूलार्थ-तदनन्तर मध्यरात्रि में धर्मजागरण के कारण जागते हुए सुबाहुकुमार के मन में यह संकल्प उठा कि वे ग्राम, नगर, आकर, जनपद और सन्निवेश आदि धन्य हैं कि जहां पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विचरते हैं, वे राजा, ईश्वर आदि भी धन्य हैं कि जो श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास मुण्डित हो कर प्रवजित होते हैं तथा वे राजा, ईश्वर आदिक भी धन्य हैं जो श्रमण भगवान् महावीर के पास पञ्चाणुव्रतिक (जिस में पांच अणुव्रतों का विधान है) गृहस्थधर्म को अंगीकार करते हैं, एवं वे राजा, ईश्वरादि भी धन्य हैं जो श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समीप धर्म का श्रवण करते हैं। hoto गामे वा यदि वा रज्जे, निन्ने वा यदि वा थले। यथारहन्तो विहरन्ति, तं भमिं रामणेय्यकं // 1 // (धम्मपद अर्हन्तवर्ग) 912 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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