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________________ विचारमूढ मद्यप (मदिरा पीने वाला) साधु से न तो आचार्यों की आराधना हो सकती है और न ही साधुओं की। ऐसे साधु की तो गृहस्थ भी निंदा करते हैं क्योंकि वे उस के दुष्कर्मों को अच्छी तरह जानते हैं। आयरिए नाराहेइ, समणे आवि तारिसो। गिहत्था वि णं गरिहन्ति, जेण जाणंति तारिसं॥४२॥ शास्त्रों में प्रमाद-कर्त्तव्य कार्य में अप्रवृत्ति और अकर्तव्य कार्य में प्रवृत्ति रूप असावधानता, पांच प्रकार के बतलाए गए हैं जो कि जीव को संसार में जन्म तथा मरण से जन्य दुःखरूप प्रवाह में अनादि काल से प्रवाहित करते रहते हैं। उन में पहला प्रमाद मद्य है। मद्य का अर्थ है मदिरा-शराब आदि नशीले पदार्थों का सेवन करना। मद्य शुभ आत्मपरिणामों को नष्ट करता है और अशुभ परिणामों को उत्पन्न / मदिरा के सेवन से जहां अन्य अनेकों हानियां दृष्टिगोचर होती हैं वहां इस में अनेकों जीवों की उत्पत्ति होते रहने से जीवहिंसा का भी महान पाप लगता है। लौकिक जीवन को निंदित, अप्रमाणित एवं पाशविक बना देने के साथ-साथ परलोक को भी यह मदिरासेवन बिगाड़ देता है। आचार्य हरिभद्र ने बहुत सुन्दर शब्दों में इस से उत्पन्न अनिष्ट परिणामों का वर्णन किया है। आप लिखते हैं वैरूप्यं व्याधिपिण्डः स्वजनपरिभवः कार्यकालातिपातो। विद्वेषो ज्ञाननाशः रमृतिमतिहरणं विप्रयोगश्च सद्भिः॥ पारुष्यं नीचसेवा कुलबलविलयो धर्मकामार्थहानिः।। कष्टं वै षोडशैते निरुपचयकरा मद्यपानस्य दोषाः॥ ___ (हरिभद्रीयाष्टक 19 वां श्लोक टीका) अर्थात्-मद्यपान से १-शरीर कुरूप और बेडौल हो जाता है। २-शरीर व्याधियों का घर बन जाता है।३-घर के लोग तिरस्कार करते हैं। ४-कार्य का उचित समय हाथ से निकल जाता है।५-द्वेष उत्पन्न हो जाता है। ६-ज्ञान का नाश होता है। ७-स्मृति और 8 बुद्धि का विनाश हो जाता है।९-सज्जनों से जुदाई होती है। १०-वाणी में कठोरता आ जाती है। ११नीचों की सेवा करनी पड़ती है। १२-कुल की हीनता होती है। १३-शक्ति का ह्रास होता है। १४-धर्म, १५-काम एवं १६-अर्थ की हानि होती है। इस प्रकार आत्मपतन करने वाले मद्यपान के दोष 16 होते हैं। जैनदर्शन की भांति जैनेतरदर्शन में भी मदिरापान को घृणित एवं दुर्गतिप्रद मान कर उस के त्याग के लिए बड़े मौलिक शब्दों में प्रेरणा दी गई है। स्मृतिग्रन्थ में लिखा है- . 640 ] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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