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________________ भांति के ग्रैवेयक-ग्रीवाभरण और उत्तरकंचुक झूल आदि से विभूषित हैं। यदि मणि रत्न पद को व्यस्त न मानकर समस्त (एक मान) लिया जाए तो उसका अर्थ चक्रवर्ती के 14 रत्नों में से "एक मणिरत्न" यह होगा। परन्तु उसका प्रकृत से कोई सम्बन्ध नहीं है। कंठ के भूषण का नाम ग्रैवेयक है। अथवा "-णाणामणिरयणविविहगेविजउत्तरकंचुइज्जे-" का अर्थ दूसरी तरह से निम्नोक्त हो सकता है। "-नानामणिरत्नखचितानि विविधग्रैवेयकानि येषां ते, नानामणिरत्नविविधौवेयकांश्च, उत्तरकंचुकाश्च इति नानामणिरत्नविविधग्रैवेयकउत्तरकंचुकाः, ते संजाताः येषां ते, तानिति भाव:-" अर्थात् हाथियों के गले में ग्रेवैयक डाले हुए हैं, जो कि अनेकविध मणियों एवं रत्नों से खचित थे, और उन हाथियों के उत्तरकंचुक भी धारण किए हुए हैं। "-पडिकप्पिए-परिकल्पितान्, कृतसन्नाहादिसामग्रीकान्-"अर्थात् परिकल्पित का अर्थ होता है सजाया हुआ। तात्पर्य यह है कि उन हाथियों को कवचादि साम्रगी से बड़ी अच्छी तरह से सजाया गया है। "झय-पडाग-वर-पंचामेल-आरूढ-हत्थारोहे-ध्वज-पताका वर-पञ्चापीडारूढहस्त्यारोहान्, ध्वजा:-गरुडादिध्वजाः, पताका:- गरुडादिवर्जितास्ताभिर्वरा ये ते तथा पञ्च आमेलकाः-शेखरकाः येषां ते तथा आरूढा हस्त्यारोहा-महामात्रा येषु ते तथा-" अर्थात् जिस पर गरुड़ आदि का चिन्ह अंकित हो उसे ध्वजा और गरुड़ादि चिन्ह से रहित को पताका कहते हैं। आमेलक-फूलों की माला, जो मुकुट पर धारण की जाती है, अथवा शिरोभूषण को भी आमेलक कहते हैं। तात्पर्य यह है कि उन हस्तियों पर ध्वजा-पताका लहरा रही है और उन को पांच शिरोभूषण पहनाए हुए हैं तथा उन पर हस्तिपक (महावत) बैठे हुए हैं। "-गहियाउहपहरणे-" गृहीतायुधप्रहरणान्, गृहीतानि आयुधानि प्रहरणार्थं येषु, अथवा आयुधान्यक्षेप्याणि प्रहरणानि तु क्षेप्याणीति-" अर्थात् सवारों ने प्रहार करने के लिए जिन पर आयुध-शस्त्र ग्रहण किए हुए हैं। यदि गृहीत-पद का लादे हुए अर्थ करें तो इस समस्त पद का "प्रहार करने के लिए जिन पर आयुध लादे हुए हैं" ऐसा अर्थ होता है। अथवा-आयुध का अर्थ है-वे शस्त्र जो फैंके न जा सकें गदा, तलवार, बन्दूक आदि। तथा प्रहरण शब्द से फैंके जाने वाले शस्त्र, जैसे-तीर, गोला, बम्ब आदि का ग्रहण होता है। इस अर्थ-विचारणा से उक्त-वाक्य का-जिन पर आयुध और प्रहरण अर्थात् न फैंके जाने वाले और फैंके जाने वाले शस्त्र लदे हुए हैं, या सवारों ने ग्रहण किए हुए हैं,-" यह अर्थ सम्पन्न होता है। 252 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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