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________________ पदार्थ-तते णं-तदनन्तर। से-वह। पूसणंदिकुमारे-कुमार पुष्यनन्दी। देवदत्ताए-देवदत्ता। भारियाए-भार्या के। सद्धिं-साथ। उप्पिं-ऊपर। पासायवरगए-उत्तम महल में ठहरा हुआ। फुट्टमाणेहिं मुयंगमंत्थएहि-बज रहे हैं मृदंग जिन में, ऐसे। वत्तीसइबद्धनाडएहिं-३२ प्रकार के नाटकों द्वारा। जावयावत् / विहरति-विहरण करता है। तते णं-तदनन्तर / से-वह / वेसमणे-वैश्रमण / राया-राजा / अन्नयाअन्यदा। कयाइ-कदाचित्-किसी समय। कालधम्मुणा-कालधर्म से। संजुत्ते-युक्त हुआ-काल कर गया। नीहरणं-निस्सरण-अरथी का निकालना। जाव-यावत्। पूसणंदी-पुष्यनन्दी। राया-राजा। जाएबन गया। ततेणं-तदनन्तर। से-वह। पूसणंदी-पुष्यनन्दी। राया-राजा। सिरीए-श्री। देवीए-देवी का। मायाभत्ते-मातृभक्त-यह माता अर्थात् "मान्यते पूज्यते इति माता-" पूज्या है, इस बुद्धि से भक्त / याविभी।होत्था-था। कल्लाकल्लिं-प्रतिदिन / जेणेव-जहां। सिरीदेवी-श्री देवी थी। तेणेव-वहां पर। उवागच्छड़ २-आता है आकर। सिरीए-श्री। देवीए-देवी के। पायवडणं-पादवन्दन। करेति-करता है, और। सतपागसहस्स-पागतेल्लेहि-शतपाक और सहस्त्रपाक अर्थात् एक शत और एक सहस्त्र औषधियों के सम्मिश्रण से बनाये हुए तैलों से। अब्भंगावेति-मालिश करता है। अट्ठिसुहाए-अस्थि को सुख देने वाले। मंससुहाए-मांस को सुखकारी। तयासुहाए-त्वचा को सुखप्रद। रोमसुहाए-रोमों को सुखकारी, ऐसी। चउव्विहाए-चार प्रकार की। संवाहणाए-संवाहना-अंगमर्दन से। संवाहावेति-सुख-शान्ति पहुंचाता है। सुरहिणा-सुरभि-सुगन्धित। गंधवट्टएण-गन्धवर्तक-उबटन से। उव्वट्टावेति-उद्वर्तन करता है-अर्थात् बटना मलता है। तिहिं उदएहि-तीन प्रकार के उदकों-जलों से। मज्जावेति-स्नान कराता है। तंजहा-जैसे कि। उसिणोदएणं-उष्ण जल से। सीओदएणं-शीत जल से। गंधोदएणं-सुगंधित जल से, तदनन्तर। विउलं-विपुल। असणं ४चार प्रकार के अशनादिकों का। भोयावेति-भोजन कराता है, इस प्रकार। सिरीए-श्री। देवीए-देवी के / ण्हायाए-नहा लेने। जाव-यावत् / पायच्छित्ताए-अशुभ स्वप्नादि के फल को विफल करने के लिए मस्तक पर तिलक एवं अन्य मांगलिक कार्य कर के। जाव-यावत् / १जिमियभुत्तुत्तरागयाए-भोजन के अनन्तर अपने स्थान पर आ चुकने पर और वहां कुल्ली तथा मुखगत लेप को दूर कर परमशुद्ध हो एवं सुखासन पर बैठ जाने पर। ततो पच्छा-उस के पीछे से। हाति वास्नान करता है। जति-भोजन करता है। उरालाइं-उदार-प्रधान।माणुस्सगाई-मनुष्यसम्बन्धी / भोगभोगाईभोगभोगों का, अर्थात् मनोज्ञ शब्द, रूपादि विषयों का। भुंजमाणे-उपभोग करता हुआ। विहरति-विहरण करता है। . मूलार्थ-राजकुमार पुष्यनन्दी श्रेष्ठीपुत्री देवदत्ता के साथ उत्तम प्रासाद में विविध प्रकार के वाद्य और जिन में मृदंग बज रहे हैं ऐसे 32 प्रकार के नाटकों द्वारा उपगीयमानप्रशंसित होते हुए यावत् सानन्द समय बिताने लगे। कुछ समय बाद महाराज वैश्रमण कालधर्म को प्राप्त हो गये। उन की मृत्यु पर शोकग्रस्त पुष्यनन्दी ने बड़े समारोह के साथ उन का निस्सरण किया यावत् मृतक कर्म करके प्रजा के अनुरोध से राज्यसिंहासन पर आरूढ हुए, तब से लेकर वे युवराज से राजा बन गए। 1. इस पद का सविस्तर अर्थ तृतीय अध्याय में किया जा चुका है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [729
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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