SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्णन भी दो प्रकार से होता है। प्रथम-सिद्धान्तरूप से, द्वितीय-कथाओं के रूप से। विपाकश्रुत में कर्मविपाक का वर्णन कथाओं के रूप में किया गया है, अर्थात् इस आगम में ऐसी कथाओं का संग्रह है, जिन का अंतिम परिणाम यह हो कि अमुक व्यक्ति ने अमुक कर्म किया था, उसे अमुक फल मिला। फल भी दो प्रकार का होता है-सुखरूप और दुःखरूप। फल के द्वैविध्य पर ही विपाकश्रुत के दो विभाग हैं। एक दुःखविपाक और दूसरा सुखविपाक। दुःखविपाक में दुःखरूप फल का और सुखविपाक में सुखरूप फल का वर्णन है। दुःखविपाक के दश अध्ययन हैं। इन में दस ऐसे व्यक्तियों का जीवनवृत्तान्त वर्णित है कि जिन्होंने पूर्वजन्म में अशुभ कर्मों का उपार्जन किया था। सुखविपाक के भी दश अध्ययन हैं। उन में दश ऐसे व्यक्तियों का जीवनवृत्तान्त अङ्कित है कि जिन्होंने पूर्वजन्म में शुभकर्मों का उपार्जन किया था। दोनों श्रेणियों के व्यक्तियों को फल की प्राप्ति भी क्रमशः दुःख और सुख रूप हुई। दोनों के समुदाय का नाम विपाकश्रुत है। आधुनिक शताब्दी में जो विपाकश्रुत उपलब्ध है उस में तथा प्राचीन विपाकश्रुत में अध्ययनगत तथा विषयगत कितनी विभिन्नता है, इस का उत्तर श्रीसमवायांग सूत्र तथा श्रीनन्दीसूत्र में स्पष्टरूप से दिया गया है। आगमोदयसमिति द्वारा मुद्रित श्री समवायांग सूत्र के पृष्ठ 125 पर विपाकश्रुत में प्रतिपादित विषय का जो निर्देश किया गया है, वह निम्नोक्त से किं तं विवागसुयं ? विवागसुए णं सुक्कडदुक्कडाणं कम्माणं फलविवागे आघविजइ।से समासओ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-दुहविवागे चेव सुहविवागे चेव।तत्थ णं दस दुहविवागाणि दस सुहविवागाणि। से किं तं दुहविवागाणि ? दुहविवागेसु णं दुहविवागाणं नगराई उजाणाई चेइयाई वणखण्डा रायाणो अम्मापियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहाओ नगरगमणाई संसारपबन्धे दुहपरम्पराओ य आघविजन्ति।सेतं दुहविवागाणि।से किं तं सुहविवागाणि? सुहविवागेसु सुहविवागाणं नगराई उजाणाई चेइयाई वणखण्डा रायाणो अम्मापिअरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइयपरलोइयइड्ढिविसेसा भोगपरिच्चाया पव्वजाओ सुयपरिग्गहा तवोवहाणाई परियागा पडिमाओ संलेहणाओ भत्तपच्चक्खाणाइं पाओवगमणाई देवलोगगमणाई सुकुलपच्चायाया पुणबोहिलाहा अन्तकिरियाओ य आघविजन्ति। दुहविवागेसु णं पाणाइवायअलियवयणचोरिक्ककरणपरदारमेहुणससंगयाए महतिव्वकसायइंदियप्पमायपावप्पओयअसुहज्झवसाणसंचियाणं कम्माणं पावगाणं पावअणुभागफलविवागा णिरयगइतिरिक्खजोणिबहुविहवसणसयपरं परापबद्धाणं मणुयत्ते वि आगयाणं जहा पावकम्मसेसेण पावगा होन्ति फलविवागा वहवसणविणासनासाकन्नुटुं 70 ] श्री विपाक सूत्रम् - [प्राक्कथन
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy