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________________ के हितचिन्तक नहीं किन्तु उसके अनिष्ट के सम्पादक हैं, यह भी प्रस्तुत कथासन्दर्भ से सूचित हो जाता है। सुबाहुकुमार के 500 विवाह क्यों? और किस लिए? यह प्रश्न विचारणीय है। जैन शास्त्रों के पर्यालोचन से पता चलता है कि अधिक विवाह कराने वाले दो वर्ग हैं। एक तो वे जो वैक्रियलब्धि के धारक या वैक्रियलब्धिसम्पन्न होते हैं। अपने ही जैसे अनेक रूपों को बना लेना और उन से काम भी ले लेना, यह वैक्रियलब्धि का पुण्यकर्मजन्य प्रभाव होता है। लब्धिधारियों का ऐसा करना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। रही दूसरे वर्ग की बात, सो इस के विषय में भी यह निर्णय है कि उस समय में ऐसा करना राजा-महाराजाओं के वैभव का प्रतीक समझा जाता था। उस समय के विचारकों की दृष्टि में इस प्रथा को गर्हित नहीं समझा. गया था, प्रत्युत आदर की दृष्टि से देखा जाता था। इसलिए सुबाहुकुमार का एक साथ 500 राजकुमारियों के साथ विवाह का होना , उस समय की प्रचलित बहुविवाहप्रथा को ही आभारी है। उस समय विशालसाम्राज्य के उपभोक्ता का इसी में गौरव समझा जाता था कि उस के अधिक से अधिक विवाह हुए हों। किसी विशाल साम्राज्य के अधिपति के कम विवाह हों, यह उस समय के अनुसार वहां के नरेश का अपमान समझा जाता था। यही कारण है कि सुबाहुकुमार के पिता अदीनशत्रु के रनिवास को एक हज़ार रानियां सुशोभित कर रही थीं। जिन में प्रधान-पट्टरानी धारिणी देवी थी, परन्तु ध्यान रहे कि जहां अधिक विवाह करना गौरव का अंग बना हुआ था, वहां सदाचारी रहना भी उतना ही. आवश्यक था। सुबाहुकुमार के सदाचारी जीवन का परिचय आगे चल कर सूत्रकार स्वयं ही करा देंगे। पहले से ही यह युग धर्मयुग कहलाता था, उस में धर्म का प्रचार था, चारों ओर धर्म की दुन्दुभि बजती थी। जिधर देखो उधर ही धर्म की चर्चा हो रही थी। उस के कारण मनोवृत्तियों का स्वच्छ रहना और कामोपासना से विमुख होना स्वाभाविक ही है। आजकल का वासना का पुजारी मानव तो इसे झटिति असंभव कह देता है, परन्तु उसे क्या पता है कि सदाचारी अपने को कामदेव के चंगुल से कितनी सावधानी से बचा लेता है और अपने में कितना दृढ़ रहता है। आज के मनुष्य की दशा तो कूप के मंडूक की भान्ति है, जो कूप के विस्तार को ही सर्वोपरि मानता है, सच तो यह है कि जिस का आत्मा आध्यात्मिक सुख को न देख कर केवल भोग का कलेवर बना हुआ है, वह अपने मानव जीवन को निस्सार कर लेता 1. सूत्रकार ने जो सुबाहुकुमार के 500 राजकुमारियों के साथ विवाह का कथानक उपन्यस्त किया है, इस का यह अर्थ नहीं है कि जैनशास्त्र बहुविवाह की प्रथा का समर्थन या विधान करते हैं, परन्तु प्रस्तुत में तो मात्र . घटनावृत्त का वर्णन करना ही सूत्रकार को इष्ट है। 800 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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