________________ कि बिना इसके अनुमान नहीं बनता। यहां पर सपक्ष तो इस लिए नहीं है कि आज तक यह सिद्ध नहीं हो सका कि ईश्वर के अतिरिक्त कोई दूसरा फल देता है। तथा विपक्ष इस लिए नहीं कि ऐसा कोई भी स्थान नहीं है कि जहां ईश्वर कर्मफलप्रदाता न हो और जीव कर्मफल भोगते हों। जिस पक्ष के साथ सपक्ष और विपक्ष न हो वह झूठा होता है। जैसे-जहां-जहां धूम है वहां-वहां अग्नि है और जहां आग नहीं वहां धूम भी नहीं। इस अन्वयव्यतिरेक रूप व्याप्तिगर्भित (पवतो वह्निमान् अर्थात् यह पर्वत वह्नि-अग्नि वाला है) अनुमान में, महानस सपक्ष और जलहद विपक्ष तथा पर्वत पक्ष का अस्तित्व अवस्थित है। इसी प्रकार ईश्वरकर्तृत्व अनुमान में अन्वयव्यतिरेकरूप से हेतुसाध्य का सम्बन्ध दृष्टिगोचर नहीं होता है, क्योंकि ईश्वरवादी कोई भी ऐसा स्थान नहीं मानता जहां कर्मफल हो और उस में ईश्वर कारण न हो। ___शब्द प्रमाण भी साधक नहीं हो सकता, क्योंकि अभी तक यह भी सिद्ध नहीं हो सका कि जिस को शब्द प्रमाण कहते हैं, वह स्वयं प्रमाण कहलाने की योग्यता भी रखता है कि नहीं / तात्पर्य यह है कि ईश्वरभाषित होने पर ही शब्द में प्रामाण्य की व्यवस्था हो सकती है परन्तु जब ईश्वर ही असिद्धं है तो तदुपदिष्ट शब्द की प्रामाणिकता सुतरां ही असिद्ध ठहरती . ईश्वर जीवों को फल किस प्रकार देता है, यह भी विचारणीय है। वह स्वयं-साक्षात् तो दे नहीं सकता क्योंकि वह निराकार है और यदि वह साकारावस्था में प्रत्यक्षरूपेण कर्मों का फल दे तो इस बात को स्वीकार करने में कौन इन्कार कर सकता है। परन्तु ऐसा तो देखा नहीं जाता। यदि वह राजा आदि के द्वारा जीवों को अपने कर्मों का दण्ड दिलाता है तो ईश्वर के लिए बड़ी आपत्तियां खड़ी होती हैं। मात्र परिचयार्थ कुछ एक नीचे दी जाती हैं १-कदाचित् ईश्वर को किसी धनिक के धन को चुरा या लुटा कर उस धनिक के पूर्वकर्म का फल देना अभिमत है, तो ईश्वर इस कार्य को खुद तो आकर करेगा नहीं किन्तु तत्रैव महानसम्। निश्चितसाध्याभाववान् विपक्षः-यथा तत्रैव महाह्रदः। (तर्कसंग्रहः) अर्थात् जिस में साध्य का सन्देह हो उसे पक्ष कहते हैं। जैसे-धूमहेतु हो तो पर्वत पक्ष है। अर्थात् इस पर्वत में अग्नि है कि नहीं? इस प्रकार से पर्वत सन्देहस्थानापन्न है, अत: वह पक्ष है। जिसमें साध्य का निश्चय पाया जाए वह सपक्ष कहलाता है। जैसेमहानस-रसोई। महानस में अग्निरूप साध्य सुनिश्चित है, अत: महानस सपक्ष है। जिस में साध्य के अभाव का निश्चय पाया जाए उसे विपक्ष कहते हैं, जैसे महाह्रद-सरोवर है। सरोवर में अग्नि का अभाव सुनिश्चित है अतः यह विपक्ष कहलाता है। 1. साध्यसाधनयोः साहचर्यमन्वयः, तद्भावयोः साहचर्य व्यतिरेकः। अर्थात् साध्य और साधन के साहचर्य को अन्वय कहते हैं और दोनों के अभाव के साहचर्य की व्यतिरेक संज्ञा है। जैसे-जहां-जहां धूम (साधन) है, वहां-वहां अग्नि (साध्य) है, जैसे-महानस / इस को अन्वय कहते हैं और जहां वह्नि का अभाव है, वहां धूम का भी अभाव है, यथा-सरोवर। इसे व्यतिरेक कहते हैं। प्राक्कथन] श्री विपाक सूत्रम् [63