SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 929
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करने वाले थे। तात्पर्य यह है कि उनका शिष्यपरिवार पर्याप्त था और वह भी परम विनीत। अत: उन की सेवा भी होती थी कि नहीं इस प्रश्न का उत्तर अनायास समझा जा सकता है। अब रही शिष्यलालसा की बात, उस का उत्तर यह है कि भगवान् को शिष्य बनाने की न तो कोई लालसा थी और न ही उन के आत्मसाधन में यह सहायक थी। केवल एक बात थी जिस के लिए भगवान ने वहां कष्ट उठा कर भी पधारने का यत्न किया। वह थी"-जगतहित की भावना-"। सुबाहुकुमार मेरे वहां जाने से दीक्षा ग्रहण करेगा और दीक्षित हो कर जनता को सद्भावना का मार्ग प्रदर्शित करेगा तथा अज्ञानान्धकार में पड़ी हुई जनता को उज्ज्वल प्रकाश देगा एवं अपने आत्मा का कल्याण साधन करता हुआ अन्य आत्माओं को भी शान्ति पहुँचाएगा और स्वात्मा के उत्थान से अनेक पतित आत्माओं का उद्धार करने में समर्थ होगा... इत्यादि शुभ विचारणा से प्रेरित होकर भगवान् ने विहार कर वहां पधारने का यत्न किया। भगवान् के हृदय में सुबाहुकुमार से निष्पन्न होने वाले दूसरों के हित का ही ध्यान था। तब इतने परम : उपकारी वीरप्रभु के विषय में शिष्यलालसा की कल्पना तो निरी अज्ञानमूलक है। इस की तो वहां संभावना भी नहीं की जा सकती। इस के अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि हर एक कार्य समय आने पर बनता है, समय के आए बिना कोई काम नहीं बनता। यदि समय नहीं आया तो लाख यत्न करने पर भी कार्य नहीं होता और समय आने पर अनायास हो जाता है। भगवान् तो घट-घट के ज्ञाता हैं, अतीत और अनागत उन के लिए वर्तमान है। वे तो पहले ही कह चुके हैं कि सुबाहुकुमार उन के पास दीक्षित होगा, उन की वाणी तथ्य से कभी शून्य नहीं हो सकती थी. किन्तु उस की सत्यता या पूर्ति की प्रत्यक्षता के लिए कुछ समय अपेक्षित था। समय आने पर सुबाहुकुमार को न तो किसी ने प्रेरणा की और न किसी ने दीक्षित होने का उपदेश दिया, किन्तु अन्तरात्मा से उसे प्रेरणा मिली और वह दीक्षा के लिए तैयार हो गया तथा भगवान् के आगमन की प्रतीक्षा करने लगा। मनष्य की शुभ भावनाएं और दृढ़ निश्चय अवश्य फल लाता है। इस अनुभवसिद्ध उक्ति के अनुसार सुबाहुकुमार की शुभभावना भी अपना फल लाई। जिस समय उस के किसी अनुचर ने पुष्पकरण्डक उद्यान में प्रभु के पधारने का समाचार दिया तो सुबाहुकुमार को जो प्रसन्नता हुई उस का व्यक्त करना इस क्षुद्र लेखनी की सामर्थ्य से बाहर की वस्तु है। 1. भगवान् को "तिण्णाणं तारयाणं" इसलिए कहा जाता है कि जहां भगवान् स्वयं संसार सागर से पार होते हैं, वहां वे संसारी प्राणियों को भी संसार सागर से पार करते हैं। "तारयाणं" यह पद भगवान की महान् दयालुता, कृपालुता एवं विश्वमैत्रीभावना का एक ज्वलन्त प्रतीक है। 920 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy