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________________ और उस का यथाविधि पालन कर उस के प्रभाव से सिद्ध होगा, बुद्ध होगा, मुक्त होगा, और परम निर्वाण पद को प्राप्त कर सर्व प्रकार के दुःखों का अन्त करेगा। निक्षेप की कल्पना पूर्ववत् कर लेनी चाहिए। ॥छठा अध्ययन समाप्त॥ टीका-गौतम स्वामी द्वारा किए गए नन्दिषेण के आगामी जीवन सम्बन्धी प्रश्न के उत्तर में वीर प्रभु ने जो कुछ फरमाया उस का वर्णन मूलार्थ में कर दिया गया है। वर्णन सर्वथा स्पष्ट है। इस पर किसी प्रकार के विवेचन की आवश्यकता नहीं है। पाठकों को स्मरण होगा कि प्रस्तुत अध्ययन के आरम्भ में श्री जम्बू स्वामी ने श्री सुधर्मा स्वामी के चरणों में छठे अध्ययन को सुनने की इच्छा प्रकट की थी, जिस को पूर्ण करने के लिए श्री सुधर्मा स्वामी ने प्रस्तुत छठे अध्ययन को सुनाना प्रारम्भ किया था। अध्ययन सुना लेने के अनन्तर श्री सुधर्मा स्वामी श्री जम्बू स्वामी से फ़रमाने लगे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के छठे अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है। मैंने जो कुछ प्रभु वीर से सुना है, उसी के अनुसार तुम्हें सुनाया है, इस में मेरी अपनी कोई कल्पना नहीं है। इन्हीं भावों को अभिव्यक्त करने के लिए सूत्रकार ने "-निक्खेवो-निक्षेप-" यह पद प्रयुक्त किया है। निक्षेप शब्द का अर्थसम्बन्धी विचार द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। परन्तु प्रस्तुत में निक्षेप शब्द से जो सूत्रांश अभिमत है, वह निम्नोक्त है... एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तेणं दुहविवागाणं छट्ठस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते 'त्ति बेमि-इन पदों का भावार्थ ऊपर की पंक्तियों में लिखा जा चुका है। .. "-पुढवीए० संसारो तहेव जाव पुढवीए०-" यहां का बिन्दु प्रथम अध्याय में पढ़े गए"-उक्कोससागरोवमट्ठिइएसुजाव उववजिहिति-" इन पदों का परिचायक है। तथा -संसार- शब्द संसारभ्रमण का बोध कराता है। तहेव का अर्थ है-वैसे ही। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र का संसारभ्रमण वर्णित हुआ है, उसी प्रकार नन्दिषेण का भी समझ लेना चाहिए और उसी संसारभ्रमण के संसूचक पाठ को जाव-यावत् पद से अभिव्यक्त किया गया है। जाव-यावत् पद से विवक्षित पदों तथा-पुढवीए०-के बिन्दु से अभिमत पाठ की सूचना चतुर्थ अध्याय में दी जा चुकी है। ____ "-सिट्ठिकुले० बोहि सोहम्मे महाविदेहे०-" इत्यादि पदों से जो सूत्रकार को 1. 'बेमि' त्ति ब्रवीम्यहं भगवतः समीपेऽमुं व्यतिकरं विदित्वेत्यर्थः (वृत्तिकारः) प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [549
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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