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________________ सहारा ले कर वह भेड़चाल नहीं अपनाता प्रत्युत सत्य के आलोक में अपने हिताहित का निरीक्षण करता रहता है। श्रेष्ठ एवं निर्दोष धर्माचरण की साधना में किसी प्रकार की भी लज्जा एवं हिचकिचाहट नहीं करता। अपने पक्ष का मिथ्या आग्रह कभी नहीं करता। परिवार आदि का पालन-पोषण करता हुआ भी अन्तर हृदय से अपने को अलग रखता है। पानी में कमल बन कर रहता है। अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति में कर्त्तव्य को नहीं भूलने पाता। विवेक उसके जीवन का संगी होता है। उसके बिना जीवन के पथ पर वह एक पग भी आगे नहीं सरकता। ऐसा गृहस्थ अपने वर्तमान को जहां सुखद तथा सफल बनाता है, वहां अपने भविष्य को भी उज्ज्वल समुज्वल एवं अत्युज्ज्वल बना डालता है। विवेकी जीव पाप का बन्ध नहीं करता, जब कि अविवेकी पाप के बोझ से व्याकुल हो उठता है। इसीलिए शास्त्रकारों ने विवेक को अपनाने पर और अविवेक को छोड़ने पर जोर दिया है। विवेकपूर्ण प्रवृत्तियां पापबन्ध का कारण नहीं होतीं, यह एक उदाहरण से समझिये एक डॉक्टर किसी रोगी का ऑपरेशन (Operation) करता है। रोगी रोता है, चिल्लाता है, पर डाक्टर अपना काम किए जाता है। वह स्वास्थ्यसंवर्धन के विचारों से उस के व्रणों में से पीव निकालता हुआ उसके रोने पर तनिक ध्यान नहीं देता। ऐसी स्थिति में वह अपना कर्त्तव्य निभाने का पुण्योत्पादक स्तुत्य प्रयास कर रहा है। इसके विपरीत जो डॉक्टर लोभ के कारण या किसी द्वेषादि के कारण रोगी के रोग का उपशमनं नहीं करता या उसे बढ़ाने का प्रयास करता है तो वह पाप का बन्ध करता है। इन्हीं सदसद् प्रवृत्तियों के कारण मनुष्य विवेकी और अविवेकी बन कर पुण्य और पाप का बन्ध कर लेता है। एक और उदाहरण लीजिए-कल्पना करो कि एक व्यक्ति को थानेदार बना दिया गया। थानेदार बन जाने के अनन्तर उस व्यक्ति का कर्त्तव्य हो जाता है कि वह चोर डाकू आदि को पकड़ कर उसे उसके अपराध का दण्ड दिलाए। परन्तु यदि किसी प्रकार के लालच में आकर उसे छोड़ दे या उसके अपराध की अपेक्षा उसे अधिक दण्ड दिलाए तो वह अपने कर्तव्य का पालन या अधिकार का उचित उपयोग नहीं करता। उस का यह व्यवहार अवश्य निन्दनीय, अवांछनीय एवं विवेकशून्य है, और इस आचरण से वह अवश्य ही पाप कर्म का बन्ध करेगा। तात्पर्य यह है कि लोभादि के किसी भी कारण से अपने कर्त्तव्य को भुला कर अन्याय में रत रहने से मनुष्य पाप कर्म का बन्ध करता है। दुर्योधन कारागृहरक्षक-जेलर के जीवन में इसी प्रमादजन्य अविवेक की अधिक मात्रा दिखाई देती है। अपराधियों को दण्ड देने के लिए उसने जिस साधन-सामग्री को अपने पास 532 ] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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