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________________ संचित कर रक्खा है, उस को देखते हुए प्रतीत होता है कि अपराधियों को दण्ड देने में उस के परिणाम अत्यन्त कठोर और अमर्यादित रहते थे, तथा महाराज सिंहरथ के राज्य में जो लोग चोरी करते, दूसरों की स्त्रियों का अपहरण करते, लोगों की गांठ कतर कर धन चुराते, राज्य को हानि पहुँचाने का यत्न करते तथा बालहत्या और विश्वासघात करते, उन को दुर्योधन कोतवाल जो दण्ड देता उस पर से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि दुर्योधन चारकपाल के सन्मुख अपराधी के अपराध और उसके दंड का कोई मापदण्ड नहीं था। उसकी मनोवृत्ति इतनी कठोर और निर्दय बन चुकी थी कि थोड़े से अपराध पर भी अपराधी को अधिक से अधिक दण्ड देना ही उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य बन चुका था, और इसी में वह अपने जीवन को सफल एवं कृतकृत्य मानता था। अपराधी को दंड न देने का किसी धर्मशास्त्र में उल्लेख नहीं है। शासन व्यवस्था और लोकमर्यादा को कायम रखने के लिए दण्डविधान की आवश्यकता को सभी नीतिज्ञ विद्वानों ने स्वीकार किया है, परन्तु उसका मर्यादित आचरण जितना प्रशंसनीय है, उतना ही निन्दनीय उसका विवेकशून्य अमर्यादित आचरण है, जोकि भीषणातिभीषण नारकीय दुःखों के उपभोग कराने का कारण बनता हुआ आत्मा को जन्म-मरण के परंपराचक्र में भी धकेल देता है। . दुर्योधन चारकपाल ने दण्डविधान में जो प्रमादजन्य अथच मनमाना आचरण किया, उसी के फलस्वरूप उस को छठी नरक में 22 सागरोपम के बड़े लम्बे काल तक नारकीय भीषण यातनाओं का अनुभव करने के अतिरिक्त यहां पर नन्दीषेण के भव में भी स्वकृत पापकर्मजन्य अशुभ विपाक-फल का भयानक अनुभव करना पड़ा है। ___"-अप्पेगतियाणं तेण चेव ओवीलं दलयति-" इन पदों की व्याख्या वृत्तिकार श्री अभयदेव सरि के शब्दों में "-तेनैव वान्तेन अवपीडं शेखरं, मस्तके तस्यारोपणात् उपपीडां वा वेदनां दलयति त्ति करोति-" इस प्रकार है। अर्थात् पूर्व कराई हुई वमन को अपराधी के सिर पर रख कर उसे पीड़ित करता था, अर्थात् अधिक से अधिक अपमानित करता था। परन्तु श्रद्धेय पण्डित मुनि श्री घासी लाल जी म० "-अप्पेगतियाणं तेणं चेव ओवीलं दलयति-" इन पदों का अर्थ निम्नोक्त करते हैं "-अप्येकान् तेन वान्ताशनादिना पुनरपि अवपीडां वेदनां दापयति कारयतीत्यर्थः-" अर्थात् कई एक को वमन कराता था पुनः उसी वान्त पदार्थ को उन्हें 1. दुर्योधन चारकपाल जिस विधि से अपराधियों को दण्डित एवं विडम्बित किया करता था, उस का वर्णन मूलार्थ में किया जा चुका है। 2. नन्दीषेण के सम्बन्ध में कुछ पहले बतलाया जा चुका है तथा शेष आगे बतलाया जाएगा। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [533
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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