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________________ भेदोपभेदों के वर्णन करने का यहां पर अवसर नहीं है तथा विस्तारभय से उनका उल्लेख भी नहीं किया गया। यहां तो संक्षेप से इतना ही बतला देना उचित है कि सामान्यतया कर्म दो प्रकार के होते हैं-एक वे जो जन्मान्तर में फल देने वाले, दूसरे वे जो इसी जन्म में फल दे डालते हैं। शौरिकदत्त मच्छीमार के जीवनवृत्तान्त से यह पता चलता है कि उस के तीव्रतर क्रूरकर्मों का फल उसे इस जन्म में मिल रहा है, अर्थात् वह अपने किए कर्म का फल इस जन्म में भी भुगत रहा है। शौरिकदत्त का व्यापार था पका हुआ मांस बेचना, तथा इस व्यवसाय के साथ-साथ वह उस का स्वयं भी आहार किया करता था। तात्पर्य यह है कि वह मत्स्यादि जीवों के मांस का विक्रेता भी था और स्वयं भोक्ता भी। शूलाप्रोत कर पकाए गए, तैलादि में तले और अंगारों पर भूने गए मत्स्यादि जीवों के मांसों के साथ विविध प्रकार की मदिराओं का सेवन करना, उस के व्यवहारिक जीवन का एकमात्र कर्त्तव्य सा बना हुआ था। इसी में वह अपने जीवन को सार्थक एवं सफल समझता था। किन्तु पापकर्म से यह आत्मा उसी प्रकार मलिन होनी आरंभ हो जाती है, जिस प्रकार मलिन शरीर के सम्पर्क में आने वाला नवीन श्वेत वस्त्र। वस्त्रधारी कितना भी चाहे कि उस का वस्त्र मलिन न होने पावे परन्तु जिस तरह वह वस्त्र उस मलिन शरीर के सम्पर्क में आने से अवश्य मैला हो जाता है, उसी प्रकार कर्मरूप मल के सम्पर्क में आने से यह आत्मा भी मलिन होने से नहीं बच सकती। शौरिकदत्त ने पापकर्मों के आचरण से अपने आत्मा को अधिक से अधिक मात्रा में मलिन करने का उद्योग किया और उस के फलस्वरूप उस का मानवजीवन भी अधिक से अधिक दुःख का भाजन बना। . एक दिन शौरिकदत्त शूलाप्रोत किए हुए, तले और भूने हुए मत्स्यमांस को खा रहा था, तो वहीं उस मांस में जो मच्छी का कोई विषैला-ज़हरीला कांटा रह गया था, वह उस के गले में चिपट गया। कांटे के गले में लगते ही उसे बड़ी असह्य वेदना हुई, वह तड़प उठा। अनेक प्रकार के घरेलू यत्न पर भी कांटा नहीं निकल सका, तब उसने अपने अनुचरों को बुला कर सारे नगर में मुनादी कराई कि यदि कोई वैद्य या वैद्यपुत्र, चिकित्सक या चिकित्सकपुत्र आदि शौरिकदत्त के गले में लगे हुए मच्छी के कांटे को बाहर निकाल कर उसे अच्छा कर दे तो वह उसको बहुत सा धन देकर प्रसन्न करेगा, उस का घर लक्ष्मी से भर देगा। अनुचरों ने सारे शहर में यह उद्घोषणा कर दी और उसे सुन कर नगर के अनेक प्रसिद्ध वैद्य, वैद्यपुत्र तथा चिकित्सक आदि शौरिकदत्त के घर में पहुँचे, उन्होंने उसके गले को देखा, अपनी-अपनी तीक्ष्ण और विलक्षण प्रतिभा के अनुसार उस की चिकित्सा आरम्भ की, वमन कराए गए, विधिपूर्वक गले को दबाया गया, स्थूल ग्रासों को खिला कर कांटे को नीचे प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [661
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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