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________________ शतक' में एक स्थान पर लिखा है कि निर्बल, काणा, लंगड़ा, पूंछरहित, जिस के घावों से राध बह रही है, जिस के शरीर में कीड़े बिलबिल कर रहे हैं, जो बूढ़ा तथा भूखा है जिस के गले में मिट्टी के बर्तन का घेरा पड़ा हुआ है, ऐसा कुत्ता भी काम के वशीभूत हो कर भटकता है। “जब भूखे, प्यासे और बूढ़े तथा दुर्बल कुत्ते की यह दशा है, तो दूध, मलाई, मावा-मिष्टान्न उड़ाने वाले मनुष्यों की क्या दशा होगी? वास्तव में काम का आकर्षण है ही ऐसा, परन्तु यह कभी नहीं भूल जाना चाहिए कि यह आकर्षण पैनी छुरी पर लगे हुए शहद के आकर्षण से भी अधिक भीषण है। यही कारण है कि शास्त्रों में किम्पाक फल से इसे उपमा दी गई है। जीवन की कड़ी साधनाओं से गुजरने वाले भारत के स्वनामधन्य महामहिम महापुरुषों ने बड़े प्रबल शब्दों में यह बात कही है कि वासनाएं उपभोग से न तो शान्त होती हैं और न कम, किन्तु उन से इच्छा में और अधिक वृद्धि होती है। कामी पुरुष कामभोगों में जितना अधिक आसक्त होगा, उतनी ही उस की लालसा बढ़ती चली जाएगी। विषयभोगों के उपभोग से वासना के उपशान्त होने की सोचना निरी मूर्खता है। विषय भोगों में प्रगति तो होती है, ह्रास नहीं। जिस प्रकार प्रदीप्त हुई अग्निज्वाला घृत के प्रक्षेप से वृद्धि को प्राप्त होती है, उसी भांति कामभोगों के अधिक सेवन करने से कामवासना निरन्तर बढ़ती चली जाती है, घटती नहीं। विपरीत इस के कई एक विवेक विकल प्राणी एक मात्र कामवासना से वासित होकर निरन्तर कामभोगों के सेवन में लगे हुए कामवासना की पूर्ति के स्वप्न देखते हैं और उस के लिए विविध प्रकार के आयास उठाते हैं, परन्तु उससे वासना तो क्या शान्त होनी थी प्रत्युत उस के सेवन से वे ही शान्त हो जाते हैं, तभी तो कहा है-भोगा न भुक्ता, वयमेव भुक्ताः / यह तो प्रायः अनुभव सिद्ध है कि विषयलोलुपी मानव को कर्त्तव्याकर्त्तव्य या उचितानुचित का कुछ भी ध्यान नहीं होता। उस का एकमात्र ध्येय विषयवासना की पूर्ति होता है, फिर उसके लिए भले ही उसे बड़े से बड़ा अनर्थ भी क्यों न करना पड़े और भले ही उस का परिणाम उस के लिए विशेष हानिकर एवं अहितकर निकले, किन्तु इसकी उसे पर्वाह नहीं होती, वह तो पापाचरण में ही तत्पर रहता है। रोहीतकनरेश पुष्यनन्दी की परमप्रिया देवदत्ता से पाठक सुपरिचित हैं। उस के रूपलावण्य और अनुपम सौन्दर्य ने ही उसे एक राजमहिषी बनने का अवसर दिया है। उस में जहां शरीरगत बाह्य सौन्दर्य का आधिक्य है वहां उसके अन्तरात्मा में विषयवासना की भी कमी नहीं। वह मानवोचित कामभोगों के उपभोग की 1. कृशः काणः खंजः श्रवणरहितः पुच्छविकलो, व्रणी पूयक्लिन्नः कृमिकुलशतैरावृततनुः। क्षुधाक्षामो जीर्णः पिठरजकपालार्पितगलः,शनीमन्वेति श्वा हतमपि च हन्त्येव मदनः॥ (वैराग्यशतक, श्लोक 18) 2. न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति। हविषा कृष्णवर्मेव भूय एवाभिवर्धते॥ . प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [737
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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