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________________ शयनागार में विश्रब्ध-निश्चिन्त हो कर सोई हुई श्रीदेवी को देखा और चारों दिशाओं का. अवलोकन कर जहां भक्तगृह था वहां आई, आकर एक लोहे के दंडे को लेकर अग्नि में तपाया, जब वह अग्नि जैसा और केसू के फूल के समान लाल हो गया तो उसे संडास से पकड़ कर जहां श्रीदेवी थी वहां आई, उस तपे हुए लोहे के दंडे को श्रीदेवी के गुह्यस्थान में प्रविष्ट कर दिया। उस के प्रक्षेप से बड़े भारी शब्द से आक्रन्दन करती हुई श्रीदेवी काल कर गई। तदनन्तर उस भयानक चीत्कार शब्द को सुन कर श्रीदेवी की दास दासियां वहां दौड़ी हुई आईं, आते ही उन्होंने वहां से देवदत्ता को जाते हुए देखा और जब वे श्रीदेवी के पास गईं तो उन्होंने श्रीदेवी को प्राणरहित, चेष्टाशून्य और जीवनरहित पाया। तब मरी हुई श्रीदेवी को देख कर वे एकदम चिल्ला उठीं, हाय ! हाय ! महान् अनर्थ हुआ, ऐसा कह कर रोती, चिल्लाती एवं विलाप करती हुईं वे महाराज पुष्यनन्दी के पास आईं और उस से इस प्रकार बोलीं कि हे स्वामिन् ! बड़ा अनर्थ हुआ।देवी देवदत्ता ने माता श्रीदेवी को जीवन से रहित कर दिया-मार दिया। टीका-शास्त्रों में लिखा है कि जैसे 'किम्पाक वृक्ष के फल देखने में सुन्दर, खाने में मधुर और स्पर्श में सुकोमल होते हैं, किन्तु उनका परिणाम वैसा सुन्दर नहीं होता अर्थात् जितना वह दर्शनादि में सुन्दर होता है, खा लेने पर उसका परिणाम उतना ही भीषण होता है, गले के नीचे उतरते ही वह खाने वाले के प्राणों का नाश कर डालता है। सारांश यह है कि जिस प्रकार किम्पाक फल देखने में और खाने में सुन्दर तथा स्वादु होता हुआ भी भक्षण करने वाले के प्राणों का शीघ्र ही विनाश कर डालता है ठीक उसी प्रकार विषयभोगों की भी यही दशा होती है। ये आरम्भ में (भोगते समय) तो बड़े ही प्रिय और चित्त को आकर्षित करने वाले होते हैं परन्तु भोगने के पश्चात् इन का बड़ा ही भयंकर फल होता है। तात्पर्य यह है कि आरम्भिक काल में इन की सुन्दरता और मनोज्ञता चित्त को बड़ी लुभाने वाली होती है और इन के आकर्षण का प्रभाव सांसारिक जीवों पर इतना अधिक पड़ता है कि प्राण देकर भी वे इन को प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं। संसार में बड़े से बड़े युद्ध भी इस के लिए हुए हैं। रामायण और महाभारत जैसे महान् युद्धों का कारण भी यही है। ये छोटे बड़े और सभी को सताते हैं। मनुष्य, पशु , पक्षी यहां तक कि देव भी कोई बचा नहीं है। भर्तृहरि ने वैराग्य 1. जहा किम्पागफलाणं, परिणामो न सुन्दरो। एवं भुत्ताणं भोगाणं, परिणामो न सुन्दरो॥ (उत्तराध्ययन सू० अ० 19/18) 736 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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