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________________ तज्जेमाणे-तर्जित-तर्जना-युक्त करता हुआ। तालेमाणे २-चाबुक आदि से ताडित करता हुआ। नित्थाणेस्थानरहित। निद्धणे-निर्धन-धनरहित। निक्कणे-निष्कण-धान्यादि से रहित करता हुआ तथा। महब्बल्लस्स-महाबल नाम के। रणो-राजा के। कप्पायं-राजदेय कर-महसूल को। अभिक्खणं २बारम्बार / गेण्हति-ग्रहण करता था। तस्स णं-उस।विजयस्स-विजय नामक।चोरसेणावइस्स-चोरसेनापति की।खंदसिरी-स्कन्दश्री।णाम-नामक। भारिया-भार्या / होत्था-थी। अहीण-जो कि अन्यून एवं निर्दोष पञ्चेन्द्रिय शरीर से युक्त थी। तस्स णं-उस। विजयचोरसेणावइस्स-विजय नामक चोरसेनापति का। पुत्ते-पुत्र / खंदसिरीए-स्कन्दश्री। भारियाए-भार्या का।अत्तए-आत्मज ।अहीणपडिपुण्णपंचिन्दियसरीरेअन्यून एवं निर्दोष पांच इन्द्रिय वाले शरीर से युक्त। अभग्गसेणे-अभग्नसेन / नाम-नाम का। दारएबालक। होत्था-था, जोकि। विण्णायपरिणयमित्ते-विज्ञान-विशेष ज्ञान रखने वाला एवं बुद्धि आदि की परिपक्व अवस्था को प्राप्त किए हुए था और।जोव्वणगमणुपत्ते-युवावस्था को प्राप्त किए हुए था अर्थात् बुद्धिमान् अथच युवक था। मूलार्थ-तदनन्तर वह विजय नामक चोरसेनापति अनेक चोर, पारदारिक-परस्त्रीलम्पट, ग्रन्थिभेदक (गांठ कतरने वाले), सन्धिच्छेदक (सेंध लगाने वाले), जुआरी, धूर्त तथा अन्य बहुत से छिन्न-हाथ आदि जिनके काटे हुए हैं, भिन्न-नासिका आदि से रहित और बहिष्कृत किए हुए मनुष्यों के लिए कुटङ्क-आश्रयदाता था। वह पुरिमताल नगर के ईशानकोणगत देश को अनेक ग्रामघात, नगरघात, गोहरण, बन्दी-ग्रहण, पथिक-जनों के धनादि के अपहरण तथा सेंध का खनन, अर्थात् पाड़ लगाकर चोरी करने से पीड़ित, धर्मच्युत, तर्जित, ताड़ित-ताड़नायुक्त एवं स्थानरहित, धन और धान्य से रहित करता हुआ, महाबल नरेश के राज-देय कर-महसूल को भी बारम्बार स्वयं ग्रहण करके समय व्यतीत कर रहा था। उस विजय नामक चोरसेनापति की स्कन्दश्री नाम की निर्दोष पांच इन्द्रियों वाले शरीर से युक्त परमसुन्दरी भार्या थी, तथा विजय चोरसेनापति का पुत्र स्कन्दश्री का आत्मज अभग्नसेन नाम का एक बालक था, जो कि अन्यून एवं निर्दोष पांच इन्द्रियों से युक्त अर्थात् संगठित शरीर वाला, विज्ञात-विशेष ज्ञान रखने वाला और बुद्धि आदि की परिपक्वता से युक्त एवं युवावस्था को प्राप्त किए हुए था। टीका-प्रस्तुत सूत्र-पाठ में चोरसेनापति विजय के कृत्यों का दिग्दर्शन कराया गया है तथा साथ में उसकी समयज्ञता एवं दीर्घदर्शिता को भी सूचित कर दिया गया है। विजय ने सोचा कि जब तक मैं अनाथों की सहायता नहीं करूंगा तब तक मैं अपने कार्य में सफल नहीं हो पाऊंगा। एतदर्थ वह अनाथों का नाथ और निराश्रितों का आश्रय बना। 342 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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