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________________ सम्बन्धिजनों और परिजनों से घिरा हुआ सर्व ऋद्धि यावत् वादिंत्रादि के शब्दों के साथ रोहीतक नगर के मध्य में से होता हुआ दत्त सेठ, जहां पर महाराज वैश्रमण का घर और जहां पर महाराज वैश्रमणदत्त विराजमान थे, वहां पर आया, आकर उसने महाराज को दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि कर के महाराज की जय हो, विजय हो, इन शब्दों से बधाई दी, बधाई देने के बाद कुमारी देवदत्ता को उनके अर्पण कर दिया, सौंप दिया। महाराज वैश्रमण दत्त उपनीत-अर्पण की गई कुमारी देवदत्ता को देख कर बड़े प्रसन्न हुए, और विपुल अशनादिक को तैयार करा कर मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकजनों, सम्बन्धिजनों तथा परिजनों को आमंत्रित कर उन्हें भोजनादि करा तथा उन का वस्त्र, गंध, माला और अलंकार आदि से सत्कार करते हैं, सम्मान करते हैं, सम्मान करने के अनन्तर कुमार पुष्यनन्दी और कुमारी देवदत्ता को फलक पर बिठा कर श्वेत और पीत अर्थात् चांदी और सुवर्ण के कलशों से उनका अभिषेक-स्नान कराते हैं, तदनन्तर उन्हें सुन्दर वेष भूषा से सुसज्जित कर, अग्निहोम-हवन कराते हैं, हवन के बाद कुमार पुष्यनन्दी को कुमारी देवदत्ता का पाणिग्रहण कराते हैं, तदनन्तर वह वैश्रमणदत्त नरेश कुमार पुष्यनन्दी और देवदत्ता का सम्पूर्ण ऋद्धि यावत् महान् वाद्यध्वनि और ऋद्धिसमुदाय तथा सम्मानसमुदाय के साथ दोनों का विवाह करवाते हैं। तात्पर्य यह है कि विधिपूर्वक बड़े समारोह के साथ कुमार पुष्यनन्दी और कुमारी देवदत्ता का विवाहसंस्कार सम्पन्न हो जाता है। तदनन्तर देवदत्ता के माता पिता तथा उनके साथ आने वाले अन्य मित्रजनों, ज्ञातिजनों, निजकजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों और परिजनों का भी विपुल अशनादिक तथा वस्त्र, गन्ध, माला और अलंकारादि से सत्कार करते हैं, सम्मान करते हैं तथा सत्कार एवं सम्मान करने के बाद उन्हें सम्मानपूर्वक विसर्जित अर्थात् विदा करते हैं। टीका-जिस तरह एक क्षुधातुर व्यक्ति क्षुधा दूर करने के साधनों को ढूंढ़ता है और प्रयत्न करने से उन के मिल जाने पर परम आनन्द को प्राप्त होता है तथा अपने को बड़ा पुण्यशाली मानता है, ठीक उसी प्रकार महाराज वैश्रमण भी परम सुन्दरी और परमगुणवती कुमारी देवदत्ता को अपनी पुत्रवधू बनाने की चिन्ता से व्याकुल थे, परन्तु अन्तरंग पुरुषों से "-देवदत्ता के पिता सेठ दत्त ने राजकुमार पुष्यनन्दी को अपना जामाता बनाना स्वीकार कर लिया है-" यह सूचना प्राप्त कर, क्षुधातुर व्यक्ति को पर्याप्त भोजन मिल जाने पर जितने. आनन्द का अनुभव होता है, उस से भी कहीं अधिक आनन्द का अनुभव उन्होंने किया। वे 724 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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