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________________ तथा उज्झितक कुमार की तरह उम्बरदत्त को भी घर से बाहर निकाल दिया गया। . तत्पश्चात् किसी अन्य समय उम्बरदत्त के शरीर में एक ही साथ सोलह प्रकार के रोगातंक उत्पन्न हो गए, जैसे कि-१-श्वास, २-कास यावत् १६-कुष्ठ रोग। इन सोलह प्रकार के रोगातंकों-भयंकर रोगों से अभिभूत-व्याप्त हुआ उम्बरदत्त यावत् हस्तादि के सड़ जाने से दुःखपूर्ण जीवन बिता रहा है। . भगवान कहते हैं कि हे गौतम ! इस प्रकार उम्बरदत्त बालक पूर्वकृत अशुभ कर्मों का यह भयंकर फल भोगता हुआ इस भान्ति समय व्यतीत कर रहा है। टीका-शास्त्रों में गर्भस्थिति का वर्णन लगभग सवा नौ महीने का पाया जाता है, इतने समय में गर्भस्थ प्राणी के अंगोपांग पूर्णरूप से तैयार हो जाते हैं और फिर वह जन्म ले लेता है। श्रेष्ठिभार्या गंगादत्ता के गर्भ का भी काल पूर्ण होने पर उसने एक नितान्त सुन्दर बालक को जन्म दिया। बालक के जन्मते ही सेठ सागरदत्त को चारों ओर से बधाइयां मिलने लगीं। सागरदत्त को भी पुत्रजन्म से बड़ी खुशी हुई और गंगादत्ता की खुशी का तो कुछ पारावार ही नहीं था। दम्पती ने पुत्र-जन्म की खुशी में जी खोलकर धन लुटाया। कुलमर्यादा के अनुसार बालक का जन्मोत्सव बड़े समारोह के साथ मनाया गया और जन्म से बारहवें दिन जब नामकरण का समय आया तो सेठ सागरदत्त ने अपनी सारी जाति को तथा अन्य सगे सम्बन्धियों एवं मित्रों आदि को आमंत्रित किया और सबको प्रीतिभोजन कराया। तत्पश्चात् सभी के सन्मुख बालक के नाम की उद्घोषणा करते हुए कहा कि प्रियबन्धुओ! मुझे यह बालक अन्तिम आयु में मिला है और मिला भी उम्बरदत्त यक्ष के अनुग्रह से है अर्थात् उसकी मन्नत मानने के अनन्तर ही यह उत्पन्न हुआ है अत: मेरे विचारानुसार इसका उम्बरदत्त (उम्बर का दिया हुआ) नाम रखना ही समुचित है। सागरदत्त के इस प्रस्ताव का सबने समर्थन किया और तब से नवजात बालक उम्बरदत्त के नाम से पुकारा जाने लगा। .. बालक उम्बरदत्त १-दूध पिलाने वाली, २-स्नान कराने वाली, ३-गोद में उठाने वाली, ४-क्रीड़ा कराने वाली, और ५-शृंगार कराने वाली-शरीर को सजाने वाली, इन पांच धाय माताओं के प्रबन्ध में पालित और पोषित होता हुआ बढ़ने लगा। शनैः-शनैः शैशव अवस्था का अतिक्रम करके युवावस्था में पदार्पण करने लगा। तात्पर्य यह है कि बालभाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त हो गया। शास्त्रों में लिखा है कि कर्मों का प्रभाव बड़ा विचित्र होता है। शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्म समय पर अपना पूरा-पूरा प्रभाव दिखलाते हैं। इस संसारी जीव के जिस समय शुभ कर्म उदय में आते हैं तब वह हर प्रकार से सुख का ही उपभोग करता है। उस समय वह प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [605
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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