SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 955
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रतिदिन दो बार करने योग्य आवश्यक अनुष्ठान या प्रतिक्रमण आवश्यक कहलाता है। सामायिक शब्द चारित्र के पंचविध विभागों में से प्रथम विभाग-पहला चारित्र, श्रावक का नवम व्रत आवश्यक सूत्र का प्रथम विभाग तथा संयमविशेष इत्यादि अनेकों अर्थों का परिचायक है। प्रकृत में सामायिक का अर्थ-आचारांग-यह ग्रहण करना अभिमत है। कारण कि मूल में-सामाइयमाइयाइं-सामायिकादीनि-यह उल्लेख है। यह-एकारस अंगाईएकादशांगानि-इस का विशेषण है। अर्थात् सामायिक है आदि में जिन के ऐसे ग्यारह अंग। प्रश्न-सुबाहुकुमार को ग्यारह अंग पढ़ाए गए-यह वर्णन तो मिलता है परन्तु उसे श्री आवश्यकसूत्र पढ़ाने का वर्णन क्यों नहीं मिलता, जो कि साधुजीवन के लिए नितान्त आवश्यक होता है ? उत्तर-"श्री आवश्यक सूत्र"- यह संज्ञा ही सूचित करती है कि साधुजीवन के लिए यह अवश्य पठनीय, स्मरणीय और आचरणीय है। अत: उस के उल्लेख की तो आवश्यकता ही नहीं रहती। उस का अध्ययन तो सुबाहुकुमार के लिए अनिवार्य होने से बिना उल्लेख के ही उल्लिखित हो ही जाता है। ___ प्रश्न-ग्यारह अंगों में विपाक श्रुत का भी निर्देश किया गया है, उस के द्वितीय श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन में सुबाहुकुमार का जीवनचरित्त वर्णित है। तो क्या वह सुबाहुकुमार यही था या अन्य ? यदि यही था तो उस ने विपाकसूत्र पढ़ा, इस का क्या अर्थ हुआ? जिस का निर्माण बाद में हुआ हो उस का अध्ययन कैसे संभव हो सकता है ? , उत्तर-विपाकसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन में जिस सुबाहुकुमार का वृत्तान्त वर्णित है, वह हमारे यही हस्तिशीर्षनरेश महाराज अदीनशत्रु के परमसुशील पुत्र सुबाहुकुमार हैं। अब रही बात पढ़ने की, सो इस का समाधान यह है कि भगवान् महावीर स्वामी के ग्यारह गणधर थे, जो कि अनुपम ज्ञानादि गुणसमूह के धारक थे। उन की नौ वाचनाएं (आगमसमुदाय) थीं जो कि इन्हीं पूर्वोक्त अंगों, उपांगों आदि के नाम से प्रसिद्ध थीं। प्रत्येक में विषय भिन्न-भिन्न होता था और उन का अध्ययनक्रम भी विभिन्न होता था। वर्तमान काल में जो वाचना उपलब्ध हो रही है वह भगवान् महावीर स्वामी के पट्टधर परमश्रद्धेय श्री सुधर्मा स्वामी की है। ऊपर जो अंगों का वर्णन किया गया है वह इसी से सम्बन्ध रखता है। सुधर्मा स्वामी की वाचनागत विभिन्नता सुबाहुकुमार के जीवनवृत्तान्त से स्पष्ट हो 1. आज भी देखते हैं कि सब प्रान्तों में शास्त्री या बी. ए. आदि परीक्षाएं नाम से तो समान हैं परन्तु उस की अध्ययनीय पुस्तकें विभिन्न होती हैं एवं पुस्तकगत विषय भी पृथक्-पृथक् होते हैं। यह क्रम प्राचीनता का प्रतीक है। 946 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy