________________ विलाप करती हुई जीवन यापन करने लगी। .. .भगवान् कहते हैं कि हे गौतम ! इस प्रकार देवी अंजूश्री अपने पूर्वोपार्जित पाप कर्मों के फल का उपभोग करती हुई जीवन व्यतीत कर रही है। टीका-सुख और दुःख दोनों प्राणी के शुभ और अशुभ कर्मों के फलविशेष हैं, जो कि समय-समय पर प्राणी उन के फल का उपभोग करते रहते हैं। शुभकर्म के उदय में जीव सुख और अशुभ के उदय में जीव दुःख का अनुभव करता है। एक की समाप्ति और दूसरे का उदय इस प्रकार चलने वाले कर्मचक्र में भ्रमण करने वाले जीव को दुःख के बाद सुख और सुख के अनन्तर दुःख का निरंतर अनुभव करना पड़ता है। तात्पर्य यह है कि जब तक आत्मा के साथ कर्मों का सम्बन्ध है तब तक उन में समय-समय पर सुख और दुःख दोनों की अनुभूति बनी रहती है। उक्त नियम के अनुसार अंजूश्री के जब तक शुभ कर्मों का उदय रहा तब तक तो उसे शारीरिक और मानसिक सब प्रकार के सुख प्राप्त रहे, महाराज विजयमित्र की महारानी बन कर मानवोचित सांसारिक वैभव का उस ने यथेष्ट उपभोग किया, परन्तु आज उस के वे शुभ कर्म फल देकर प्रायः समाप्त हो गए। अब उनकी जगह अशुभ कर्मों ने ले ली है। उन के फलस्वरूप वह तीव्रवेदना का अनुभव कर रही है। योनिशूल के पीड़ा ने उस के शरीर को सुखा कर अस्थिपंजर मात्र बना दिया। उसके शरीर की समस्त कान्ति सर्वथा लुप्त हो गई। वह शूलजन्य असह्य वेदना से व्याकुल होकर रात-दिन निरन्तर विलाप करती रहती है। महाराज विजयमित्र ने उस की चिकित्सा के लिए नगर के अनेक अनुभवी चिकित्सकों, निपुण वैद्यों को बुलाया और उन्होंने भी अपने बुद्धिबल से अनेक प्रकार के शास्त्रीय प्रयोगों द्वारा उसे उपशान्त करने का भरसक प्रयत्न किया परन्तु वे सब विफल ही रहे। किसी के भी उपचार से कुछ न बना। अन्त में हताश होकर उन वैद्यों को भी वापिस जाना पड़ा। यह है अशुभ कर्म के उदय का प्रभाव, जिस के आगे सभी प्रकार के आनुभविक उपाय भी निष्फल निकले। . श्रमण भगवान् महावीर फरमाने लगे कि गौतम ! तुम ने महाराज विजयमित्र की अशोकवाटिका के समीप आन्तरिक वेदना से दुःखी हो कर विलाप करती हुई जिस स्त्री को देखा था, वह यही अंजूश्री है, जो कि अपने पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मों के कारण दुःखमय विपाक का अनुभव कर रही है। -सिघा. जाव एवं-यहां पठित जाव-यावत् पद-दुग-तिय-चउक्क-चच्चरमहापह-पहेसु महया 2 सद्देणं उग्घोसेमाणा-इन पदों का तथा-वेजा वा ६-यहां का अङ्क-वेजपुत्तो वा जाणओ वा जाणयपुत्तो वा तेइच्छिओ वा तेइच्छियपुत्तो वा-इन पदों प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [765