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________________ कौटुंबिक पुरुषों को बुला कर कहा कि तुम लोग विपुल अशनादिक सामग्री को तैयार कराओ और उसे, तथा पांच प्रकार की मदिराओं एंव अनेकविध पुष्यों, मालाओं और अलंकारों को कूटाकारशाला में अभग्नसेन चोरसेनापति की सेवा में पहुंचा दो। कौटुम्बिक पुरुषों ने राजा की आज्ञा के अनुसार विपुल अशनादिक सामग्री वहां पहुंचा दी। तदनन्तर अभग्नसेन चोरसेनापति स्नानादि से निवृत्त हो, समस्त आभूषणों को पहन कर अपने बहुत से मित्रों और ज्ञातिजनों के साथ उस विपुल अशनादिक तथा पंचविध सुरा आदि का सम्यक् आस्वादन, विस्वादन आदि करता हुआ प्रमत्त हो कर विहरण करने लगा। टीका-महाबल नरेश द्वारा प्राप्त निमंत्रण को स्वीकार करने के अनन्तर चोरपल्ली के सेनापति अभग्नसेन ने अपने साथियों को बुला कर महाबल नरेश के निमंत्रण का सारा वृत्तान्त कह सुनाया और साथ में यह भी कहा कि मैंने निमंत्रण को स्वीकार कर लिया है, अतः हमें वहां चलने की तैयारी करनी चाहिए, क्योंकि महाराज महाबल हमारी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। यह सुन सब ने अभग्नसेन के प्रस्ताव का समर्थन किया और सब के सब अपनी-अपनी तैयारी करने में लग गए। स्नानादि से निवृत्त हो और अशुभ स्वप्नादि के फल को विनष्ट करने के लिए मस्तक पर तिलक एवं अन्य मांगलिक कार्य करके सब ने समस्त आभूषण पहने और पहन कर अभग्नसेन के साथ चोरपल्ली से पुरिमताल नगर की ओर प्रस्थान किया। अपने साथियों के साथ अभग्नसेन बड़ी सजधज के साथ महाबल नरेश के पास पहुंचा, पहुंच कर महाराज को "-महाराज की जय हो, विजय हो-" इन शब्दों में बधाई दी और उन को राजोचित उपहार अर्पण किया। महाराज महाबल नरेश ने भी अभग्नसेन की भेंट को स्वीकार करते हुए, साथियों समेत उस का पूरा-पूरा सत्कार एवं सम्मान किया और उसे कूटाकारशाला में रहने को स्थान दिया, तथा अपने पुरुषों द्वारा खान-पानादि की समस्त वस्तुएं उस के लिए वहां भिजवा दीं। . इधर अभग्नसेन भी उस का यथारुचि उपभोग करता हुआ अपने अनेक मित्रों और ज्ञातिजनों के साथ आमोद प्रमोद में प्रमत्त हो कर समय व्यतीत करने लगा, अर्थात् महाबल नरेश ने खान-पानादि से उस की इतनी आवभगत की कि वह उस कूटाकारशाला को अपना ही घर समझ कर मन में किसी भी प्रकार का भविष्यत्कालीन भय न करता हुआ अर्थात् निर्भय एव निश्चिन्त अपने आप को समझता हुआ, आमोद-प्रमोद में समय बिताने लगा। इन्हीं भावों को अभिव्यक्त करने के लिए सूत्रकार ने पमत्ते-प्रमत्त, इस पद का प्रयोग किया है। ___ "-मित्त जाव परिवुडे-'" यहां के जाव-यावत् पद से –णाइ-णियग-सयण प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [421
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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