________________ अन्दाजा कैसे लगाया जाता है, उनका कितना ज़बरदस्त बल होता है, उससे कौन-कौन से काम लिए जा सकते हैं, इत्यादि आवश्यक और उपयोगी अनेकों बातें इस कला के द्वारा सिखाई जाती हैं। (३६)अग्निस्तम्भन कला-धधकती हुई अग्नि बिना किसी वस्तु को हानि पहुंचाए वहीं की वहीं कैसे ठहराई जा सकती है, चारों ओर से धक-धक करती हुई अग्नि में प्रवेश कर और मन चाहे उतने समय तक उस में ठहर कर बाल-बाल सुरक्षित उस से कैसे निकला जा सकता है, और आग के दहकते हुए अंगारों को हाथ या मुंह में कैसे रखा जा सकता है, इत्यादि अनेकों हितकारी बातों का ज्ञान इस कला द्वारा प्राप्त किया जाता है। (37) मेघवृष्टि-कला-मेघ कितने प्रकार के होते हैं, उनके बनने का समय कौनसा है, मूसलाधार वर्षा करने वाले मेघ कैसे रंगरूप के होते हैं, इन्द्रधनुष क्या है, वर्षा के समय ही इन्द्रधनुष क्यों दिखाई देता है, अलग-अलग प्रकार का क्यों होता है, मध्याह्न में वह क्यों नहीं दीखता, बिजली क्या है, क्यों प्रकट होती है, इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला द्वारा किया जाता है। (38) विलेपन-कला-विलेपन क्या है, यह देश, काल और पात्र की प्रकृति को पहचान कर शरीर को ताज़ा, नीरोग, सुगन्धित और यथोचित गर्म या ठण्डा रखने के लिए कैसे बनाया जाता है, किन-किन पदार्थों से बनता है, इस का उपयोग कब करना चाहिए, इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला द्वारा होता है। (39) मर्दन या घर्षण-कला-धर्मार्थकाममोक्षाणां, शरीरं मूलसाधनम्- के नियमानुसार यदि शरीर ही ठीक नहीं तो सारा मानव जीवन ही किरकिरा है। शरीर का घर्षण करने से त्वचा के सब छिद्र कैसे खोले जा सकते हैं, मर्दन करने की शास्त्रीय विधियां कौनकौन सी हैं, तेल आदि का मर्दन मास में अधिक से अधिक कितनी बार करना चाहिए, हाथ की रगड़ से शरीर में विद्युत का प्रवाह कैसे होने लगता है, तेलादि का मर्दन अपने हाथ से करने में औरों की अपेक्षा क्या विशेषता है, इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला द्वारा हो जाता है। (40) ऊर्ध्वगमन-कला-वाष्प (भांप) कैसे पैदा किया जाता है, उस की शक्ति का असर क्या किसी खास दिशा में ही पड़ सकता है या दाहिने, बाएं, ऊपर, नीचे जिधर भी चाहें उस से काम ले सकते हैं, उड़नखटोले और अनेकों प्रकार के अन्य वायुयानों की रचना कैसे होती है, इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला के द्वारा होता है। (41) सुवर्णसिद्धि-कला-इस कला के द्वारा खान से सोना निकालने के अतिरिक्त अन्य अमुक-अमुक पदार्थों के साथ-साथ अमुक-अमुक जड़ी बूटियों के रस, अमुक-अमुक 232 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध