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________________ मात्रा में मिला कर अमुक परिमाण की गरमी के द्वारा उस घोल को फूंकने से सोना बनाने की विधि का ज्ञान प्राप्त होता है। (42) रूपसिद्धि-कला-अपने रूप को कैसे निखारना चाहिए, इस के लिए शरीर के भीतर किन-किन पदार्थों को पहुंचाना होता है, और बाहिर किन-किन विलेपनों का व्यवहार करना चाहिए, ताकि चर्म में आमरण झुर्रियां न पड़ें, शरीर के डील-डौल को सुसंगठित बना कर उसे सदा के लिए वैसा ही गठीला और चुस्त बनाए रखने के लिए प्रतिदिन किस प्रकार के व्यायाम करने चाहिएं, इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला के द्वारा हो जाता (43) घाटबन्धन-कला-घाट, पुल, नदी, नालों के बांध आदि कैसे बनाए जाते हैं, कहां बान्धना इनका आवश्यक और टिकाऊ तथा कम खर्चीला होता है, सड़कें, नालियां, मोरियां कहां और कैसे बनाई जानी चाहिएं, तरह-तरह के मकानों का निर्माण कैसे किया जाता है, इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला के द्वारा किया जाता है। (44) पत्रछेदन-कला-किसी भी वृक्ष के कितने ही उंचे या नीचे या मध्य भाग वाले किसी भी निर्धारित पत्र को उस के निश्चित स्थान पर किसी भी निशाने द्वारा किसी निर्धारित समय के केवल एक ही बार में वेधने का काम इस कला के द्वारा सिखाया जाता है। - (45) मर्मभेदन कला-इस कला के द्वारा शरीर के किसी खास और निश्चित भाग को किसी आयुध द्वारा छेदन करने का काम सिखाया जाता है। (४६)लोकाचार-कला-लोकाचार-व्यवहार से अपना तथा संसार का उपकार कैसे होता है, लोकाचार से भ्रष्ट होने पर मनुष्य का सारा ज्ञान व्यर्थ कैसे हो जाता है, लोकआचार को धर्म की जड़ कहते हैं सो कैसे, आचार से दीर्घायु की प्राप्ति कैसे होती है, सुखी, दुखी पुण्यात्मा और पापात्मा इत्यादि प्रकार के जो प्राणी संसार में पाए जाते हैं, इनमें से प्रत्येक के साथ किस प्रकार का यथोचित आचार-व्यवहार किया जाए, ये सब बातें इस कला द्वारा जानी जाती हैं। ___. (47) लोकरञ्जन-कला-इस कला के द्वारा पुरुषों को भांति-भांति से लोकरञ्जन करने की व्यवहारिक शिक्षा दी जाती है। उदाहरण के लिए -कोई आदमी लोकरञ्जनार्थ इस प्रकार कई तरह से हंसता या रोता है कि दर्शकों को तो वह हंसता या रोता हुआ नज़र आता है, पर सचमुच में वह न तो आप हंसता ही है और न रोता ही है। (48) फलाकर्षण-कला-फलों का आकर्षण ऊपर, दाहिने या बाएं न होते हुए पृथ्वी की ओर ही क्यों होता है, प्रत्येक पदार्थ पृथ्वी से ऊपर की ओर चाहे फैंका जाए, या प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [233
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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