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________________ घटना का स्वरूप भलीभाँति जाना नहीं जा सकता। इसलिए स्थान का निर्देश करना नितान्त आवश्यक होता है, फिर भले ही वह कहीं हो या कोई भी हो। इसी उद्देश्य की पूर्ति के निमित्त जम्बूद्वीपान्तर्गत भारतवर्ष के सुप्रसिद्ध नगर हस्तिनापुर का उल्लेख किया गया है। हस्तिनापुर बहुत प्राचीन नगर है। भारतवर्ष के इतिहास में इस को बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। यह नगर पहले भगवान् शान्तिनाथ और कुन्थुनाथ की राजधानी बना रहा है। फिर पांडवों की राजधानी का भी इसे गौरव प्राप्त रहा है। यहां पर अनेक तीर्थंकरों के कल्याणक हुए और हमारे चरितनायक सुबाहुकुमार के जीव ने भी अपने को सुबाहुकुमार के रूप में जन्म लेने की योग्यता का सम्पादन इसी नगर में किया था। संभवतः इसी कारण प्राचीन हस्तिनापुर सुदूर पूर्व से लेकर आज तक भारत का भाग्यविधाता बना रहा है। इसी हस्तिनापुर में सुबाहुकुमार अपने पूर्वभव में सुमुख गाथापति के नाम से विख्यात था। सुमुख-जिस का मुख नितान्त सुन्दर हो, जिस के मुख से प्रिय वचन निकलें, अर्थात् जिस के मुख से अश्लील, कठोर, असत्य और अप्रिय वचनों के स्थान में सभ्य, कोमल, सत्य और प्रिय वचनों का निस्सरण हो, वह सुमुख कहा वा माना जाता है। गाथापति-गाथा नाम घर का है, उस का पति-संरक्षक गाथापति-गृहपति कहलाता है। वास्तव में प्रतिष्ठित गृहस्थ का ही नाम गाथापति है। सुमुख गाथापति आढ्य-सम्पन्न, दीप्त-तेजस्वी और अपरिभूत था अर्थात् नागरिकों में उस का कोई पराभव-तिरस्कार नहीं कर सकता था। तात्पर्य यह है कि धनी, मानी होने के साथ-साथ वह आचरण सम्पन्न भी था। इसलिए उसका तिरस्कार करने का किसी में भी साहस नहीं होता था। सुमुख गाथापति पूरा-पूरा सदाचारी था, अतएव अपरिभूत था। . धन, धान्य की प्रचुरता से किसी मनुष्य का महत्त्व नहीं बढ़ता। उस की प्रचुरता तो कृपण और दुःशील के पास भी हो सकती है। सुमुख का घर धन, धान्यादि से भरपूर था, मगर उस की विशेषता इस बात में थी कि उस का धन परोपकार में व्यय होता था। दीपक अपने प्रकाश से स्वयं लाभ नहीं उठाता। वह जलता है तो दूसरों को प्रकाश देने के लिए ही। सुमुख गाथापति भी दीपक की भांति अपने वैभव का विशेषरूप से दूसरों के लिए ही उपयोग करता था। उस की वदान्यता-दानशीलता देश देशान्तरों में प्रख्यात थी। उस की धनसम्पत्ति के विशेष भाग का व्यय अनुकम्पादान और सुपात्रदान में ही होता था। ___धर्मघोष-सहस्राम्रवन नामक उद्यान में 500 शिष्यपरिवार के साथ पधारने वाले आचार्यश्री का धर्मघोष, यह गुणसम्पन्न नाम था। धर्मघोष का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ होता है-धर्म की घोषणा करने वाला। तात्पर्य यह है कि जिस के जीवन का एकमात्र उद्देश्य धर्म की घोषणा करना, धर्म का प्रचार करना हो, वह धर्मघोष कहा जा सकता है। उक्त आचार्यश्री के जीवन 876 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्थ
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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