SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 728
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तदनुसार वे वहां गए और दत्त से उस की पुत्री देवदत्ता की याचना की। दत्त ने भी उसे सहर्ष स्वीकार करते हुए उन्हें सम्मानपूर्वक विदा किया, एवं उन्होंने वापिस आकर महाराज वैश्रमणदत्त को सारा वृत्तान्त कह सुनाया। प्रस्तुत कथासन्दर्भ से मुख्य दो बातों का पता चलता है, जो कि निम्नोक्त हैं १-प्राचीन काल में यह प्रथा थी कि जिस लड़की का सम्बन्ध जिस लड़के के साथ उचित जान पड़ता था, उसी के साथ करने के लिए लड़की के माता पिता से लड़की की याचना की जाती थी, जो कि अपवाद रूप न हो कर शिष्टजन सम्मत तथा अनुमोदित थी। - २-उस समय (जिस समय का यह कथासंदर्भ है) कन्याओं के बदले कुछ शुल्कउपहार लेने की प्रथा भी प्रचलित थी। महाराज वैश्रमण द्वारा भेजे गए अन्तरंग पुरुषों का दत्त के प्रति यह कहना कि कहिये क्या उपहार दिलाएं, इस बात का प्रबल प्रमाण है कि उस समय कन्याओं का किसी न किसी रूप में उपहार लेने को निन्द्य नहीं समझा जाता था। यदि उस समय यह प्रथा निन्द्य समझी जाती होती तो "दत्त" इस का ज़रूर निषेध करता। उसने तो इतना ही कहा कि मेरे लिए यही शुल्क काफी है जो महाराज मेरी कन्या को पुत्रवधू बना रहे हैं। इस से स्पष्ट हो जाता है कि उस समय लड़की वालों को लड़के वालों की तरफ़ से कुछ शुल्क देना अनुचित नहीं समझा जाता था। - वर्तमान युग में इस शुल्क'-उपहार लेने की प्रथा को इस लिए निन्द्य समझा जाता है कि इससे अनेक प्रकार के अनर्थों को जन्म मिला है। वृद्धविवाह जैसी दुष्ट प्रथा को प्रगति मिलने का यही एकमात्र कारण है तथा अयोग्य वरों के साथ योग्य लड़कियों का सम्बन्ध भी इसी को आभारी है। इन्हीं कुपरिणामों के कारण यह प्रथा निन्द्य हो गई और इस लिए आज एक निर्धन कुलीन व्यक्ति अपनी लड़की के बदले लेना तो अलग रहा प्रत्युत लड़की के घर का (जहां लड़की ब्याही गई हो) जल भी पीने को तैयार नहीं होता। -जइ विसा सयरजसुक्का-इन पदों का अर्थ वृत्तिकार-यद्यपि सा स्वकीयराज्यशुल्का (स्वकीयं आत्मीयं राज्यमेव शुल्कं यस्याः सा) स्वकीयराज्यलभ्या इत्यर्थः-इस प्रकार करते हैं अर्थात् अपना समस्त राज्य भी उसके बदले में दिया जाए तो कोई बड़ी बात अन्तरंग पुरुष भी कहा जाता है। अन्तरंग पुरुष दो तरह के होते हैं, सम्बन्धिजन और मित्रजन। दोनों का ग्रहण अभ्यन्तरस्थानीय शब्द से जानना चाहिए। 1. लड़की का शुल्क-उपहार लेने की प्रथा सभी कुलों में थी-ऐसा भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आगमों में ऐसे भी प्रमाण हैं, जहां लड़की के लिए शुल्क नहीं भी दिया गया है। वासुदेव श्री कृष्ण ने अपने भाई गजसुकुमार के लिए सोमा की याचना की, परन्तु उस के उपलक्ष्य में किसी प्रकार का शुल्क दिया हो, ऐसा उल्लेख अन्तगड सूत्र में नहीं पाया जाता। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [719
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy