SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 727
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लुभाने वाला नूतन वस्त्र मिल जाए तो वह पहले को त्याग देता है। एक व्यक्ति को साधारणरूखा सूखा भोजन मिल रहा है, इसके स्थान में यदि कोई दयालु पुरुष उसे स्वादिष्ट भोजन ला कर दे तो वह उसी की ओर ललचाता है। सारांश यह है कि चाहे कोई धार्मिक हो चाहे सांसारिक प्रत्येक व्यक्ति नवीनता और सुन्दरता की ओर आकर्षित होता हुआ दृष्टिगोचर होता है। उन में अन्तर केवल इतना होगा कि धार्मिक व्यक्ति आत्मविकास में उपयोगी धार्मिक साधनों की नवीनता चाहता है और सांसारिक प्राणी संसारगत नवीनता की ओर दौड़ता है। रोहीतकनरेश वैश्रमणदत्त ने जब से परमसुन्दरी दत्त पुत्री देवदत्ता को देखा है तब से वे उसके अद्भुत रूप लावण्य पर बहुत ही मोहित से हो गए। उन की चित्तभित्ति पर कुमारी देवदत्ता की मूर्ति अमिटचित्र की भांति अंकित हो गई और वे इसी चिन्ता में निमग्न हैं कि किसी तरह से वह लड़की उसके राजभवन की लक्ष्मी बने। वे विचारते हैं कि यदि इस कन्या का सम्बन्ध अपने युवराज पुष्यनन्दी से हो जाए तो यह दोनों के अनुरूप अथच सोने पर सुहागे जैसा काम होगा। प्रकृति ने जैसा सुन्दर और संगठित शरीर पुष्यनन्दी को दिया है वैसा ही अथवा उससे अधिक रूपलावण्य देवदत्ता को अर्पण किया है। तब दोनों की जोड़ी उत्तम ही नहीं किन्तु अनुपम होगी। जिस समय रूप लावण्य की अनुपम राशि देवदत्ता महार्ह वस्त्राभूषणों से सुसज्जित हो साक्षात् गृहलक्ष्मी की भान्ति युवराज पुष्यनन्दी के वाम भाग में बैठी हुई राजभवन की शोभाश्री का अद्भुत उद्योत करेगी तो वह समय मेरे लिए कितना आनन्दवर्धक और उत्साह भरा होगा, इस की कल्पना करना भी मेरे लिए अशक्य है। , ___ महाराज वैश्रमणदत्त के इन विचारों को यदि कुछ गम्भीरता से देखा जाए तो इन में पवित्रता और दीर्घदर्शिता दोनों का स्पष्ट आभास होता है। उन्होंने दत्त सेठ की पुत्री देवदत्ता को देखा और उस के अनुपम रूप लावण्य के अनुरूप अपने पुत्र को ठहराते हुए उस की युवराज पुष्यनन्दी के लिए याचना की है। इस से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि देवदत्ता के सौन्दर्य का उन के मन पर कोई अनुचित प्रभाव नहीं पड़ा, तथा उन की मानसिक धारणा कितनी उज्ज्वल और मन पर उन का कितना अधिकार था, यह भी इस विचारसन्दोह से स्पष्ट प्रमाणित हो जाता है। महाराज वैश्रमणदत्त ने उसे हर प्रकार से प्राप्त करना चाहा परन्तु स्त्रीरूप में नहीं प्रत्युत पुत्रीसमान पुत्रवधू के रूप में। इससे महाराज के संयमित जीवन की जितनी भी प्रशंसा की जाए उतनी ही कम है। इन विचारों के अनन्तर उन्होंने अपने अन्तरंग पुरुषों को बुलाया और उन से दत्त सेठ के घर पर जाकर उस की पुत्री देवदत्ता को अपने राजकुमार पुष्यनन्दी के लिए मांगने को कहा। 1. अभ्यन्तर स्थान में रहने वाला पुरुष अभ्यन्तरस्थानीय कहा जाता है। अभ्यन्तरस्थानीय को 718 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy