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________________ हे महानुभावो ! तुम जाओ, जाकर यहां के प्रतिष्ठित सेठ दत्त की पुत्री और कृष्णश्री की आत्मजा देवदत्ता नाम की कन्या को युवराज पुष्यनन्दी के लिए भार्यारूप से मांग करो। यद्यपि वह स्वराज्यलभ्या है अर्थात् वह यदि राज्य दे कर भी प्राप्त की जा सके तो भी ले लेने योग्य है। ____ महाराज वैश्रमण की इस आज्ञा को सम्मानपूर्वक स्वीकार कर के वे लोग स्नानादि कर और शुद्ध तथा राजसभादि में प्रवेश करने योग्य एवं उत्तम वस्त्र पहन कर जहां दत्त सार्थवाह का घर था, वहां जाते हैं। दत्त सेठ भी उन्हें आते देखकर बड़ी प्रसन्नता प्रकट करता हुआ आसन से उठ कर उनके सत्कारार्थ सात आठ कदम आगे जाता है और उनका स्वागत कर आसन पर बैठने की प्रार्थना करता है। तदनन्तर गतिजनित श्रम के दूर होने से स्वस्थ तथा मानसिक क्षोभ के न रहने के कारण विशेष रूप से स्वास्थ्य को प्राप्त करते हुए एवं सुखपूर्वक उत्तम आसनों पर अवस्थित हो जाने पर उन आने वाले सज्जनों को दत्त सेठ विनम्र शब्दों में निवेदन करता हुआ इस प्रकार बोला-महानुभावो ! आप का यहां किस तरह से पधारना हुआ है, मैं आप के आगमन का हेतु जानना चाहता हूँ। दत्त सार्थवाह के इस प्रकार कहने के अनन्तर उन पुरुषों ने कहा कि हम आप की पुत्री और कृष्णश्री की आत्मजा देवदत्ता नाम की कन्या को युवराज पुष्यनन्दी के लिए भार्यारूप से मांग करने के लिए आए हैं। यदि हमारी यह मांग आप को संगत, अवसरप्राप्त, श्लाघनीय और इन दोनों का सम्बन्ध अनुरूप जान पड़ता हो तो देवदत्ता को युवराज पुष्यनन्दी के लिए दे दो, और कहो, आप को क्या शुल्कउपहार दिलवाया जाए? उन अभ्यन्तरस्थानीय पुरुषों के इस कथन को सुन कर दत्त बोले कि महानुभावो! मेरे लिए यही बड़ा भारी शुल्क है जो कि महाराज वैश्रमण दत्त मेरी इस बालिका को ग्रहण कर मुझे अनुगृहीत कर रहे हैं। तदनन्तर दत्त सेठ ने उन सब का पुष्प , वस्त्र, गंध, माला और अलंकारादि से यथोचित सत्कार किया और उन्हें सम्मानपूर्वक विसर्जित किया। तदनन्तर वे स्थानीयपुरुष महाराज वैश्रमण के पास आए और उन्होंने उन को उक्त सारा वृत्तान्त कह सुनाया। टीका-मनोविज्ञान का यह नियम है कि मन सदा नवीनता की ओर झुकता है, नवीनता की तरफ आकर्षित होना उस का प्रकृतिसिद्ध धर्म है। किसी के पास पुरानी पुस्तक हो उसे कोई नवीन तथा सुन्दर पुस्तक मिल जाए तो वह उस पुरानी पुस्तक को छोड़ नई को स्वीकार कर लेता है, इसी प्रकार यदि किसी के पास साधारण वस्त्र है, उसे कहीं से मन को प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [717
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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