________________ कर अत्यन्त प्रसन्नचित्त से आसन पर से उठता है, उठ कर पादपीठ से उतरता है, उतर कर पादुका को त्याग कर एकशाटिक उत्तरासंग के द्वारा सुदत्त अनगार के स्वागत के लिए सात-आठ कदम सामने जाता है, सामने जाकर तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा करता है, करके वन्दना-नमस्कार करता है, वन्दना-नमस्कार करने के अनन्तर जहां पर भक्तगृह है-रसोई है, वहां आता है, आकर आज मैं अपने हाथ से विपुल अशन, पानादि के द्वारा सुदत्त अनगार को प्रतिलाभित करूंगा अर्थात् सुपात्र को दान दूंगा, ऐसा विचार कर नितान्त प्रसन्न होता है। तदनन्तर उस सुमुख गृहपति ने उस शुद्ध द्रव्य तथा त्रिविध त्रिकरणशुद्धि से सुदत्त अनगार को प्रतिलाभित करने पर संसार को संक्षिप्त किया और मनुष्य आयु का बन्ध किया, तथा उस के घर में -१-सुवर्ण वृष्टि, २-पांच वर्षों के फूलों की वर्षा, ३-वस्त्रों का उत्क्षेप, ४-देवदुंदुभियों का आहत होना, ५-आकाश में अहोदान, अहोदान, ऐसी उद्घोषणा का होना-ये पांच दिव्य प्रकट हुए। ___ हस्तिनापुर नगर के त्रिपथ यावत् सामान्य मार्गों में अनेक मनुष्य एकत्रित होकर आपस में एक-दूसरे से कहते थे-हे देवानुप्रियो ! धन्य है सुमुख गाथापति यावत् धन्य है सुमुख गाथांपति। तदनन्तर वह सुमुख गृहपति सैंकड़ों वर्षों की आयु भोग कर कालमास में काल करके इसी हस्तिशीर्षक नगर में महाराज अदीनशत्रु की धारिणी देवी की कुक्षि में पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ। तदनन्तर वह धारिणी देवी अपनी शय्या पर किंचित् सोई और किंचित् जागती हई स्वप्न में सिंह को देखती है। शेष वर्णन पूर्ववत् जानना यावत् उन्नत प्रासादों में विषयभोगों का यथेच्छ उपभोग करने लगा। टीका-शास्त्रों में भिक्षा तीन प्रकार की बताई गई है। पहली-सर्वसम्पत्करी, दूसरी वृत्ति और तीसरी पौरुषघातिनी। जिन मुनियों ने सांसारिक व्यवहार का सर्वथा परित्याग कर दिया है, जो पांच महाव्रतों का सम्यक्तया पालन करते हैं और जिन का हृदय करुणा से सदा ओतप्रोत रहता है, वे मुनि केवल संयमरक्षा के लिए जो भिक्षा लेते हैं, वह भिक्षा सर्वसम्पत्करी कहलाती है। यह भिक्षा लेने और देने वाले, दोनों के लिए हितसाधक और आत्मविकास की जनिका होती है। इस के अतिरिक्त यह भिक्षा स्वयं साधक की आत्मा में, समाज में तथा राष्ट्र में सदाचार का प्रचण्ड तेज संचारित करने वाली होती है। जो मनुष्य लूला, लंगड़ा या अंधा है, स्वयं कमा कर खाने में असमर्थ है, वह अपने जीवननिर्वाह के लिए जो भिक्षा मांगता है वह वृत्ति भिक्षा कहलाती है। जैसे दूसरे लोग कमा कर खाते हैं उसी तरह वह भी भिक्षा के द्वारा अपनी आजीविका चलाता है। तात्पर्य यह है कि यह भिक्षा ही उस की आजीविका है द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [887