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________________ मिलेगी। वह गौष्ठिकों के द्वारा, अर्थात् उस नगरी की नवयुवक मण्डली के पुरुषों से मारा जाएगा और मर कर उसी चम्पा नगरी में किसी धनाढ्य सेठ के घर पुत्ररूप से जन्म लेगा। वहां उस का बाल्यकाल बड़ा सुखपूर्वक व्यतीत होगा और युवावस्था को प्राप्त होते ही वह तपोमय जीवन व्यतीत करने वाले तथारूप स्थविरों की सुसंगति को प्राप्त करेगा। उन के पास से धर्म का श्रवण करके उसे परम दुर्लभ अथच निर्मल सम्यक्त्व की प्राप्ति होगी, उस के प्रभाव से हृदय में वैराग्य उत्पन्न होगा और वह साधु-धर्म को अंगीकार करेगा। साधुधर्म का यथाविधि (विधि के अनुसार) पालन करके आयुष्कर्म की समाप्ति होने पर मानव-शरीर को त्याग कर सौधर्म देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होगा। वहां से च्यव कर महाविदेह में उत्पन्न होगा। वहां युवावस्था को प्राप्त होता हुआ संयम को ग्रहण करेगा और संयमानुष्ठान से कर्मों का क्षय करता हुआ अंन्त में मोक्ष को प्राप्त कर लेगा। यह उसके आगामी भवों का संक्षिप्त वृत्तान्त है, जो कि वीर प्रभु ने गौतम स्वामी को सुनाया था। इस पर से मानव प्राणी की सांसारिक यात्रा कितनी लम्बी और कितनी विकट एवं विलक्षण होती है, इस का अनुमान सहज ही में किया जा सकता है। "वेयड्ढगिरिपायमूले" इस में उल्लेख किए गए वैताढ्य पर्वत का वर्णन मृगापुत्र के अधिकार में कर दिया गया है। उसी भान्ति यहां पर भी समझ लेना चाहिए। "ततो अणंतरं उव्वट्टित्ता'' इस पाठ में उल्लेख किए गए "अणंतरं" पद का अर्थ है-अनन्तर व्यवधानरहित / इसे समझने के लिए एक उदाहरण लीजिए-एक जीव पूर्वकृत पाप कर्मों के फल-स्वरूप रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में नारकीयरूप से उत्पन्न होता है। उसकी भवस्थिति पूरी होने पर वह नारकीय जीव वहां से निकल कर मनुष्यलोक में आकर मानवरूप में जन्म लेता है। वहां पर आयु समाप्त करके वह वैताढ्य पर्वत की तलहटी में जा उत्पन्न हुआ। इसी प्रकार एक दूसरा जीव है जो पहले नरक में गया और वहां से निकल कर सीधा वैताढ्य पर्वत की तलहटी में जा उत्पन्न हुआ। अब विचार कीजिए कि दोनों ही जीव वैताढ्य पर्वत की तलहटी में उत्पन्न हो रहे हैं और दोनों ही पहली नरक से निकल कर आ रहे हैं। इन में प्रथम जीव तो परम्परा से (मध्य में मनुष्यभव करके) आया हुआ है जब कि दूसरा साक्षात्सीधा ही आया है। नरक से उद्वर्तन-निकलना तो दोनों का एक जैसा है, परन्तु पहले का उद्वर्तन तो अन्तर-उद्वर्तन है और दूसरे का अनन्तर-उद्वर्तन कहलाता है। __हमारे पूर्व-परिचित उज्झितक कुमार प्रथम नरक से निकलकर बिना किसी और भव करने के सीधे वैताढ्य पर्वत की तलहटी में जन्मे, अत: इन का निकलना अनन्तर-उद्वर्तन कहलाता है। अनन्तर पद का यहां पर इसी आशय को व्यक्त करने के लिए प्रयोग किया गया प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [323
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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