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________________ है जिसका उपयोग एकादि राष्ट्रकूट ने किया अर्थात् घोषणा करा दी। सांसारिक परिस्थिति में अर्थ का प्रलोभन अधिक व्यापक और प्रभुत्वशाली है। १"अर्थस्य पुरुषो दासः दासस्त्वर्थो न कस्यचित्" इस नीति-वचन को सन्मुख रखते हुए नीतिकुशल एकादि ने गुणिजनों के आकरणार्थ अर्थ का प्रलोभन देने में भी कोई त्रुटि नहीं रक्खी, अपने अनुचरों द्वारा यहां तक कहलवा दिया कि अगर कोई वैद्य या चिकित्सक प्रभृति गुणी पुरुष, उसके 16 रोगों में से एक रोग को भी शान्त कर देगा तो उसे भी वह पर्याप्त धन देगा, इस से यह तो अनायास ही सिद्ध हो जाता है कि समस्त रोगों को उपशान्त करने वाला कितना लाभ प्राप्त कर सकता है। अर्थात् उस के लाभ की तो कोई सीमा नहीं रहती। दो या तीन बार बड़े ऊंचे स्वर से घोषणा करने का आदेश देने का प्रयोजन मात्र इतना ही प्रतीत होता है कि इस विज्ञप्ति से कोई अज्ञात न रह जाए। एतदर्थ ही उद्घोषणा स्थानों के निर्देश में शृङ्गाटक, त्रिपथ, चतुष्पथ और महापथ एवं साधारणपथ आदि का उल्लेख किया गया है। शृङ्गाटक-त्रिकोण मार्ग को कहते हैं। त्रिक-जहां पर तीन रास्ते मिलते हों। चतुष्कचतुष्पथ, चार मार्गों के एकत्र होने के स्थान का नाम है जिसे आम भाषा में "चौक" कहते हैं। चत्वर-चार मार्गों से अधिक मार्ग जहां पर संमिलित होते हों उसकी चत्वर संज्ञा है। . महापथ-राजमार्ग का नाम है, जहां कि मनुष्य समुदाय का अधिक संख्या में गमनागमन हो। पथ सामान्य मार्ग को कहते हैं। प्रस्तुत सूत्र में वैद्य, ज्ञायक और चिकित्सक, ये तीन शब्द प्रयुक्त हुए हैं। इन के अर्थविभेद की कल्पना करते हुए वृत्तिकार के कथनानुसार जो वैद्यकशास्त्र और चिकित्सा दोनों में निपुण हो वह वैद्य, और जो केवल शास्त्रों में कुशल हो वह ज्ञायक तथा जो मात्र चिकित्सा में प्रवीण हो वह चिकित्सक कहा जाता है। . यहां पर एक बात विचारणीय प्रतीत होती है वह यह कि "-वेजो वा वेजपुत्तो 1. यह सम्पूर्ण वचन इस प्रकार हैअर्थस्य पुरुषो दासो, दासस्त्वर्थो न कस्यचित्। इति सत्यं महाराज ! बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः॥१॥ कहते हैं कि दुर्योधनादि कौरवों का साथ देते हुए एक समय महारथी भीष्म पितामह से युधिष्ठर प्रभृति किसी संभावित व्यक्ति ने पूछा कि आप अन्यायी कौरवों का साथ क्यों दे रहे हो ? इसके उत्तर में उन्होंने कहा कि संसार में पुरुष तो अर्थ का दास-धन का गुलाम है परन्तु अर्थ-धन किसी का भी दास-गुलाम नहीं, यह बात अधिकांश सत्य है, इसलिए महाराज! कौरवों के अर्थ ने-धन प्रलोभन न मुझे बान्ध रक्खा है। 2. "वेजो व" त्ति वैद्यशास्त्रे चिकित्सायां च कुशलः। "वेजपुत्तो व" त्ति तत्पुत्रः "जाणुओ व"त्ति ज्ञायकः केवल-शास्त्रकुशलः "तेगिच्छिओव" त्ति चिकित्सामात्रकुशलः [अभयदेवसूरिः] 178 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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