________________ (5) जांगुल (6) भूतविद्या (7) रसायन और (8) वाजीकरण। . . शिवहस्त, शुभहस्त और लघुहस्त वह धन्वन्तरि वैद्य विजयपुर नगर में महाराज कनकरथ के अन्तःपुर में निवास करने वाली राणियों और दास दासी आदि तथा अन्य बहुत से राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाहों, इसी प्रकार अन्य बहुत से दुर्बल, ग्लान, व्याधित या बाधित और रोगी जनों एवं सनाथों, अनाथों तथा श्रमणों, ब्राह्मणों, भिक्षुकों, करोटकों, कार्पटिकों एवं आतुरों की चिकित्सा किया करता था, तथा उन में से कितनों को तो मत्स्यमांसों का उपदेश करता अर्थात् मत्स्यमांसों के भक्षण का उपदेश देता और कितनों को कच्छुओं के मांसों का, कितनों को ग्राहों के मांसों का, कितनों को मकरों के मांसों का, कितनों को सुंसुमारों के मांसों का और कितनों को अजमांसों का उपदेश करता। इसी प्रकार भेड़ों, गवयों, शूकरों, मृगों,शशकों, गौओं और महिषों के मांसों का उपदेश करता। कितनों को तित्तरों के मांसों का तथा बटेरों, लावकों, कपोतों, कुक्कुटों और मयूरों के मांसों का उपदेश देता।इसी भान्ति अन्य बहुत से जलचर, स्थलचर और खेचर आदि जीवों के मांसों का उपदेश करता और स्वयं भी वह धन्वन्तरि वैद्य उन अनेकविध मत्स्यमांसों यावत् मयूररसों तथा अन्य बहुत से जलचर, स्थलचर और खेचर जीवों के मांसों से तथा मस्त्यरसों यावत् मयूररसों से पकाये हुए, तले हुए और भूने हुए मांसों के साथ छः प्रकार की सुरा आदि मदिराओं का आस्वादन, विस्वादन आदि करता हुआ समय व्यतीत करता था। इस पातकमय कर्म में निपुण, प्रधान तथा इसी को अपना विज्ञान एवं सर्वोत्तम आचरण बनाए हुए वह धन्वन्तरि नामक वैद्य अत्यधिक पाप कर्मों का उपार्जन करके 32 सौ वर्ष की परमायु को भोग कर कालमास में काल करके छठी नरक में उत्कृष्ट 22 सागरोपम की स्थिति वाले नारकियों में नारकीरूप से उत्पन्न हुआ। * टीका- "कारण से कार्य की उत्पत्ति होती है" यह न्यायशास्त्र का न्यायसंगत सिद्धान्त है। सुख और दुःख ये दोनों कार्य हैं किसी कारण विशेष के अर्थात् ये दोनों किसी कारण विशेष से ही उत्पन्न होते हैं। जैसे अग्नि के कार्यभूत धूम से उस के कारणरूप अग्नि का अनुमान किया जाता है ठीक उसी प्रकार कार्यरूप सुख या दुःख से भी उस के कारण का अनुमान किया जा सकता है। फिर भले ही वह कारणसमुदाय विशेषरूप से अवगत न हो कर सामान्यरूप से ही जाना गया हो, तात्पर्य यह है कि कार्य और कारण का समानाधिकरण होने से इतना तो बुद्धिगोचर हो ही जाता है कि जहां पर सुख अथवा दुःख का संवेदन है वहां पर प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [573