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________________ आते हैं। 2 त्ता-आकर। एगाइसरीरं-एकादि राष्ट्रकूट के शरीर का। परामुसंति 2 त्ता- स्पर्श करते हैं, स्पर्श करने के अनन्तर। तेसिं रोगाणं-उन रोगों का। निदाणं-निदान (मूलकारण)। पुच्छन्ति 2 त्तापूछते हैं, पूछ कर / एक्काइरट्ठकूडस्स-एकादि राष्ट्रकूट के।तेसिं-उन / सोलसण्हं-सोलह। रोयाकाणंरोगातंकों में से। एगमवि-किसी एक। रोयातंकं-रोगातंक को। उवसामित्तए-उपशांत करने के लिए। बहूहिं-अनेक। अब्भंगेहि य-अभ्यंग-मालिश करने से। उव्वट्टणाहि य-उद्वर्तन-वटणा वगैरह मलने से। सिणेहपाणेहि य-स्नेहपान कराने-स्निग्ध पदार्थों का पान कराने से। वमणेहि य-वमन कराने से। विरेयणाहि य-विरेचन देने-मल को बाहर निकालने से। सेयणाहि य-सेचन-जलादि सिंचन करने अथवा स्वेदन करने से। अवद्दाहणाहि य-दागने से। अवण्हाणेहि य-अवस्नान-विशेष प्रकार के द्रव्यों द्वारा संस्कारित-जल द्वारा स्नान कराने से।अणुवासणाहि य-अनुवासन कराने-अपान-गुदाद्वार से पेट में तेलादि के प्रवेश कराने से। वत्थिकम्मेहि य-बस्ति कर्म करने अथवा गुदा में वर्ति आदि के प्रक्षेप करने से। निरुहेहि य-निरुह-औषधियें डाल कर पकाए गए तेल के प्रयोग से (विरेचन विशेष से) तथा। सिरावेधेहि य-शिरावेध-नाड़ी वेध करने से। तच्छणेहि य-तक्षण करने-क्षुरक-छुरा, उस्तरा आदि द्वारा त्वचा को काटने से। पच्छणेहि य-पच्छ लगाने से तथा सूक्ष्म विदीर्ण करने से। सिरोवत्थीहि यशिरोबस्तिकर्म से। तप्पणेहि य-तेलादि स्निग्ध पदार्थों के द्वारा शरीर का उपवृंहण करने अर्थात् तृप्त करने से, एवं। पुडपागेहि य-पाक विधि से निष्पन्न औषधियों से। छल्लीहि य-छालों से अथवा रोहिणी प्रभृति वन-लताओं से। मूलेहि य-वृक्षादि के मूलों-जड़ों से। कंदेहि य-कंदों से। पत्तेहि य-पत्रों से। पुप्फेहि य-पुष्पों से। फलेहि य-फलों से। बीएहि य-बीजों से। सिलियाहि य-चिरायता से। गुलियाहि य-गुटिकाओं-गोलियों से। ओसहेहि य-औषधियों-जो एक द्रव्य से निर्मित हों, और। भेसजेहि यभैषज्यों-अनेक द्रव्यों से निर्माण की गई औषधियों के उपचारों से। इच्छंति-प्रयत्न करते हैं, अर्थात् इन पूर्वोक्त नानाविध उपचारों से एकादि राष्ट्रकूट के शरीर में उत्पन्न हुए सोलह रोगों में से किसी एक रोग को शमन करने का यत्न करते हैं, परन्तु / उवसामित्तते-उपशमन करने में वे। णो चेव-नहीं। संचाएंतिसमर्थ हुए अर्थात् उन में से एक रोग को भी वे शमन नहीं कर सके। तते णं-तदनन्तर। ते-वे। बहवेबहुत से। वेजा य वेजपुत्ता य ६-वैद्य और वैद्यपुत्र आदि। जाहे-जब। तेसिं-उन। सोलसण्हं-सोलह / रोयातंकाणं-रोगातंकों में से। एगमवि रोयायंकं-किसी एक रोगातंक को भी। उवसामित्तए-उपशान्त करने में। णं-वाक्यालंकारार्थक है। णो चेव संचाएंति-समर्थ नहीं हो सके। ताहे-तब। संता-श्रान्त। (देह के खेद से खिन्न) तथा। तंता-तान्त-[मन के दुःख से दुखित] और। परितंता-परितान्त(शरीर और मन दोनों के खेद से खिन्न) हुए 2 / जामेव दिसं-जिस दिशा से अर्थात् जिधर से। पाउब्भूता-आए थे। तामेव दिसं-उसी दिशा को अर्थात् उधर को ही। पडिगता-चले गए। मूलार्थ-तदनन्तर वह एकादि राष्ट्रकूट सोलह रोगातंकों से अत्यन्त दुःखी होता हुआ कौटुम्बिक पुरुषों- सेवकों को बुलाता है और बुला कर उन से इस प्रकार कहता 1. मस्तक पर चमड़े की पट्टी बान्धकर उस में नाना विधि द्रव्यों से संस्कार किए गए तेल को भरने का नाम शिरो-बस्ती है। प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [175
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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