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________________ का सर्वथा अभाव हो, वह सर्वज्ञ कहलाता है। भगवान् घट-घट के ज्ञाता होने के कारण सर्वज्ञ / कहे गए हैं। ३९-सर्वदर्शी-चर और अचर सभी पदार्थों का द्रष्टा, सर्वदर्शी कहा जाता है। भगवान् सर्वदर्शी थे। ४०-शिव, अचल, अरुज, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध, अपुनरावृत्ति सिद्धगति नामक स्थान को प्राप्त / अर्थात् शिव आदि पद सिद्धगति (जिस के सब काम सिद्ध-पूर्ण हो जाएं उसे सिद्ध कहते हैं। आत्मा निष्कर्म एवं कृतकृत्य होने के अनन्तर जहां जाता है उसे सिद्धगति कहा जाता है) नामक स्थान के विशेषण हैं / शिव आदि पदों का अर्थ निनोक्त है १-शिव-कल्याणरूप को कहते हैं / अथवा-जो बाधा, पीड़ा और दुःख से रहित हो वह शिव कहलाता है। सिद्धगति में किसी प्रकार की बाधा या पीड़ा नहीं होती, अत: उसे शिव कहते हैं। २-अचल-चल रहित अर्थात् स्थिर को कहते हैं। चलन दो प्रकार का होता है, एक स्वाभाविक दूसरा प्रायोगिक। दूसरे की प्रेरणा बिना अथवा अपने पुरुषार्थ के बिना मात्र स्वभाव से ही जो चलन होता है, वह स्वाभाविकचलन कहा जाता है। जैसे जल में स्वभाव से चंचलता है, इसी प्रकार बैठा मनुष्य भले ही स्थिर दिखता है किन्तु योगापेक्षया उस में भी चंचलता है, इसे ही स्वाभाविकचलन कहते हैं। वायु आदि बाह्य 'निमित्तों से जो चंचलता उत्पन्न होती है, वह प्रायोगिकचलन कहलाता है। मुक्तात्माओं में न स्वभाव से ही चलन होता है और न प्रयोग से ही। मुक्तात्माओं में गति का अभाव है, इसलिए भी वह अचल है। ३-अरुज-रोगरहित को अरुज कहते हैं। शरीररहित होने के कारण मुक्तात्मा को वात, पित्त और कफ़ जन्य शारीरिक रोग नहीं होने पाते और कर्मरहित होने से भाव रोग रागद्वेषादि भी नहीं होते। ४-अनन्त-अन्तर रहित का नाम है। मुक्तात्माएं सभी गुणापेक्षया समान होती हैं। अथवा मुक्तात्माओं का ज्ञान, दर्शन अनन्त होता है और अनन्त पदार्थों को जानता तथा देखता है, अत एव गुणापेक्षया वे अनन्त हैं / अथवा-अन्तरहित को अनन्त कहते हैं। सिद्धगति प्राप्त करने की आदि तो है, परन्तु उसका अन्त नहीं, इसलिए उस को अनन्त कहते हैं। ५-अक्षय-क्षयरहित का नाम है। मुक्तात्माओं की ज्ञानादि आत्मविभूति में किसी प्रकार की क्षीणता नहीं आने पाती, इसलिए उसे अक्षय कहते हैं। ६-अव्याबाध-पीडारहित को अव्याबाध कहते हैं। मुक्तात्माओं को सिद्धगति में . किसी प्रकार का कष्ट या शोक नहीं होता और न वे किसी दूसरे को पीड़ा पहुँचाते हैं। 778 ] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कन्ध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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