________________ होता है। श्रमणों के उपासक को श्रमणोपासक कहते हैं। जो धर्मश्रवण की इच्छा से साधुओं के पास बैठता है, उस की उपासक संज्ञा होती है। उपासक-१-द्रव्य, २-तदर्थ, ३-मोह और ४-भाव इन भेदों से चार प्रकार का माना गया है। जिस का शरीर उपासक होने के योग्य हो, जिस ने उपासकभाव के आयुष्कर्म का बन्ध कर लिया हो तथा जिस के नाम गोत्रादि कर्म उपासकभाव के सम्मुख आ गए हों, उसे द्रव्योपासक कहते हैं। जो सचित्त, अचित्त और मिश्रित पदार्थों के मिलने की इच्छा रखता है, उन की प्राप्ति के लिए उपासना (प्रयत्न-विशेष) करता है, उसे तदर्थोपासक कहते हैं। अपनी कामवासना की पूर्ति के लिए युवती-युवक की और युवक-युवती की उपासना करे, परस्पर अन्धभाव से एक दूसरे की आज्ञा का पालन करें तथा मिथ्यात्व की उत्तेजनादि करें उसे मोहोपासक कहा जाता है। जो सम्यग्दृष्टि जीव शुभ परिणामों से ज्ञान, दर्शन और चारित्र के उपासक श्रमण-साधु की उपासना करता है उसे भावोपासक कहते हैं। इसी भावोपासक की ही श्रमणोपासक संज्ञा होती है। तात्पर्य यह है कि भावोपासक और श्रमणोपासक ये दोनों समानार्थक हैं। प्रश्न-जैनसंसार में श्रावक (जो धर्म को सुनता है-जैन गृहस्थ) शब्द का प्रयोग सामूहिक रूप से देखा जाता है। चतुर्विध संघ में भी श्रावकपद है, किन्तु सूत्र में "श्रमणोपासक" लिखा है। इस का क्या कारण है ? और इन दोनों में कुछ अर्थगत विभिन्नता है, कि नहीं? यदि है तो क्या ? उत्तर-श्रावक शब्द का प्रयोग अविरत सम्यग्दृष्टि के लिए किया जाता है और श्रमणोपासक, यह शब्द देशविरत के लिए प्रयुक्त होता है। सूत्रों में जहां श्रावक का वर्णन आता है वहां तो "-दंसणसावए-दर्शनश्रावक-" यह पद दिया गया है और जहां बारह व्रतों के आराधक का वर्णन है वहां पर "-समणोवासए-श्रमणोपासक-" यह पाठ आता है। सारांश यह है कि व्रत, प्रत्याख्यान आदि से रहित केवल सम्यग्दर्शन को धारण करने वाला व्यक्ति श्रावक कहलाता है और द्वादशव्रतधारी की "श्रमणोपासक" संज्ञा है। यही इन दोनों में अर्थगत भेद है। वर्तमान में तो प्रायः श्रावकशब्द ही दोनों के लिए प्रयुक्त होता है। अर्थात् अविरत सम्यग्दृष्टि और देशविरत दोनों का ही ग्रहण श्रावक शब्द से किया जाता है। -अभिगयजीवाजीवे३-इस विशेषण से श्री सुबाहुकुमार को जीवाजीवादि पदार्थों 1. उप-समीपम् आस्ते-निषीदति धर्मश्रवणेच्छया साधूनामिति उपासकः। (वृत्तिकारः) 2. इन चारों की विशद व्याख्या के लिए देखो-जैनधर्मदिवाकार आचार्यप्रवर परमपूज्य गुरुदेव श्री आत्माराम जी महाराज द्वारा अनुवादित श्री दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र, पृष्ठ 273 / 3. अभिगत सम्यक्तया ज्ञात: जीवाजीवादिपदार्थ:-पदार्थस्वरूपो येन स तथा। अर्थात् जिस ने 906] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध