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________________ ओढ़ रखे थे। भिक्षा का पात्र तथा जल का पात्र हाथ में लिए हुए घर-घर में भिक्षावृत्ति के द्वारा अपनी आजीविका चला रहा था। तब भगवान गौतम स्वामी ऊँच, नीच और मध्यम घरों में भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए यथेष्ट भिक्षा लेकर पाटलिषंड नगर से निकल कर जहां श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहां पर आये, आकर भक्त-पान की आलोचना की और लाया हुआ भक्तपान-आहार पानी भगवान को दिखलाया, दिखलाकर उन की आज्ञा मिल जाने पर बिल में प्रवेश करते हुए सर्प की भान्ति बिना चबाये अर्थात् बिना रस लिए ही आहार करते हैं और संयम तथा तप से अपनी आत्मा को भावित-वासित करते हुए कालक्षेप कर रहे हैं। ___टीका-संयम और तप की सजीव मूर्ति भगवान् गौतम स्वामी सदैव की भान्ति आज भी षष्ठतप-बेले के पारणे के निमित्त पाटलिषण्ड नगर में भिक्षार्थ जाने की प्रभु से आज्ञा मांगते हैं। आज्ञा मिल जाने पर उन्होंने पाटलिषंड नगर में पूर्वदिशा के द्वार से प्रवेश किया और वहां पर एक ऐसे व्यक्ति को देखा जो कंडू, जलोदर, अर्श, भगंदर, कास, श्वास और शोथादि रोगों से अभिभूत हो रहा था। उस के हाथ-पांव और मुख सूजा हुआ था। इतना ही नहीं किन्तु उस के हाथ पांव की अंगुलियां तथा नाक और कान आदि अंग-प्रत्यंग भी गल सड़ चुके थे। सारा शरीर व्रणों से व्याप्त था, व्रणों में कृमि-कीड़े पड़े हुए थे, उन में से रुधिर और पीव बह रहा था। मक्षिकाओं के झुण्ड के झुण्ड उस के चारों ओर चक्कर काट रहे थे, वह रुधिर, पूय और कृमियों-कीड़ों का वमन कर रहा था। उस के हाथ में भिक्षापात्र तथा जलपात्र भी था और वह घर-घर में भिक्षा के लिए घूम रहा था, तथा वह अत्यन्त कष्टोत्पादक, करुणाजनक एवं दीनतापूर्ण शब्द बोल रहा था। इस प्रकार की दशा से युक्त पुरुष को भगवान् गौतम स्वामी ने नगर में प्रवेश करते ही देखा, देख कर वे आगे चले गए और धनिक तथा निर्धन आदि सभी गृहस्थों के घरों से आवश्यक भिक्षा ले कर वे वापिस वनषंड उद्यान में प्रभु महावीर के पास आए और यथाविधि आलोचना कर के प्रभु को भिक्षा दिखला कर उनकी आज्ञा से बिल में प्रवेश करते हुए सर्प की भान्ति उस का ग्रहण किया और पूर्व की भान्ति संयममय जीवन व्यतीत करने लगे। यह प्रस्तुत सूत्रगत वर्णन का संक्षिप्त सार है। भगवान गौतम स्वामी द्वारा देखे हुए उस पुरुष की दयनीय दशा से पूर्वसंचित अशुभ कर्मों का विपाक-फल कितना भयंकर और कितना तीव्र होता है, यह समझने के लिए अधिक विचार की आवश्यकता नहीं रहती। इस उदाहरण से उस का भलीभान्ति अनुगम हो जाता है। 558 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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