________________ -को वा एस आसि पुव्वभवे जाव समन्नागया-यहां पठित जाव-यावत् पद सेकिंनामए वा, किं वा गोएणं, कयरंसि वा गामंसि वा, नगरंसि वा, निगमंसि वा, रायहाणीए वा, खेडंसि वा, कव्वडंसि वा, मडंबंसि वा, पट्टणंसि वा, दोणमुहंसि वा, आगरंसि वा, आसमंसि वा, संवाहंसि वा, संनिवेसंसि वा, किं वा दच्चा, किं वा भोच्चा, किं वा किच्चा, किं वा समायरित्ता, कस्स वा तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियं सुवयणं सोच्चा णिसम्म सुबाहुकुमारेणं इमा एयारूवा उराला माणुसिड्ढी लद्धा ? पत्ता ? अभिसमन्नागया ?-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन पदों का भावार्थ इस प्रकार है भगवन् ! यह पूर्वभव में कौन था? इस का नाम और गोत्र क्या था ? किस ग्राम, नगर, निगम, राजधानी, खेट, कर्वट, मडम्ब, पट्टन, द्रोणमुख, आकर, आश्रम, संवाध तथा किस संनिवेश में कौन सा दान दे कर, क्या भोजन कर, कौन सा आचरण करके, किस तथारूप (विशिष्टज्ञानी) श्रमण या माहन (श्रावक) से एक भी आर्य वचन सुन कर और हृदय में धारण कर सुबाहुकुमार ने इस प्रकार की यह उदार-महान् मानवी स्मृद्धि को उपलब्ध किया, प्राप्त किया और उसे यथारुचि उपभोग्य-उपभोग के योग्य बनाया अर्थात् वह उस के यथेष्टरूप से उपभोग में आ रही है ? इस प्रश्नावली में बहुत सी मौलिक सैद्धान्तिक बातों का समावेश हुआ प्रतीत होता है। अतः प्रसंगवश उन का विचार कर लेना भी अनुचित नहीं होगा। संक्षेप से गौतम स्वामी के प्रश्नों को आठ भागों में विभक्त किया जा सकता है-१-यह पूर्वभव में कौन था, २-इस का नाम क्या था, ३-इस का गोत्र क्या था, ४-इस ने क्या दान दिया था, ५-इस ने क्या भोजन किया था, ६-इस ने क्या कृत्य किया था, ७-इस ने क्या आचरण किया था, ८-इस ने किस तथारूप महात्मा की वाणी सुनी थी, अर्थात् इस ने क्या सुना थी। ___इन में नाम और गोत्र का पृथक्-पृथक् निर्देश सप्रयोजन है। एक नाम के अनेक व्यक्ति हो सकते हैं। उन की व्यावृत्ति के लिए गोत्र का निर्देश करना भी परम आवश्यक है। इसी विचार से गौतम स्वामी ने नाम के बाद गोत्र का प्रश्न किया है। गोत्र कुल या वंश की उस संज्ञा को कहते हैं जो उस के मूलपुरुष के अनुसार होती है। चौथा प्रश्न दान से सम्बन्ध रखता है अर्थात् सुबाहुकुमार ने पूर्वभव में ऐसा कौन सा दान किया था जिस के फलस्वरूप उसे इस प्रकार की लोकोत्तर मानवीय विभूति की संप्राप्ति 1. श्रावक-गृहस्थ को भी धर्मोपदेश-धर्मसम्बन्धी व्याख्यान करने का अधिकार प्राप्त है, यह बात इस पाठ से भलीभान्ति सिद्ध हो जाती है। 868 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध