________________ कल्पोपपन्न देव ही जाते आते हैं। कल्पातीत देव अपने स्थान को छोड़ कर नहीं जाते। हमारे सुबाहुकुमार अपनी आयु को पूर्ण कर कल्पोपपन्न देवों के प्रथम विभाग में उत्पन्न हुए, जो कि सौधर्म नाम से प्रसिद्ध है। सारांश यह है कि सुबाहुकुमार मुनि ने जिस लक्ष्य को ले कर राज्यसिंहासन को ठुकराया था तथा संसारी जीवन से मुक्ति प्राप्त की थी, आज वह अपने लक्ष्य में सफल हो गए और साधुवृत्ति का यथाविधि पालन कर आयुपूर्ण होने पर पहले देवलोक में उत्पन्न हो गए और वहां की दैवी संपत्ति का यथारुचि उपभोग करने लगे। श्रमण भगवान् महावीर बोले-गौतम ! सुबाहु मुनि का जीव देवलोक के सुखों का उपभोग करके वहां की आयु, वहां का भव और वहां की स्थिति को पूरी कर के वहां से च्युत हो मनुष्यभव को प्राप्त करेगा और वहां अनेक वर्षों तक श्रामण्यपर्याय का पालन करके समाधिपूर्वक मृत्यु को प्राप्त कर तीसरे देवलोक में उत्पन्न होगा। तदनन्तर वहां की आयु को समाप्त कर फिर मनुष्यभव को प्राप्त करेगा। वहां भी साधुधर्म को स्वीकार कर के उस का यथाविधि पालन करेगा और समय आने पर मृत्यु को प्राप्त हो कर पांचवें कल्प-देवलोक में उत्पन्न होगा। वहां से च्यव कर मनुष्य और वहां से सातवें देवलोक में, इसी भांति वहां से फिर मनुष्यभव में, वहां से मृत्यु को प्राप्त कर नवमें देवलोक में उत्पन्न होगा। वहां से च्यव कर फिर मनुष्य और वहां से ग्यारहवें देवलोक में जाएगा। वहां से फिर मनुष्य बनेगा तथा वहां से सर्वार्थसिद्ध में उत्पन्न होगा। वहां के सुखों का उपभोग कर वह महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा। वहां पर तथारूप स्थंविरों के समीप मुनिधर्म की दीक्षा को ग्रहण कर संयम और तप से आत्मा को भावित करता हुआ सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक सम्यक्तया भावचारित्र की आराधना से आत्मा के साथ लगे हुए कर्ममल को जला कर, कर्मबन्धनों को तोड़ कर अष्टविध कर्मों का क्षय करके परमकल्याणस्वरूप सिद्धपद को प्राप्त करेगा। दूसरे शब्दों में 'सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परमात्मपद को प्राप्त कर के आवागमन के चक्र से सदा के लिए मुक्त हो जाएगा, जन्म-मरण से रहित हो जाएगा। . -आउक्खएणं, भवक्खएणं, ठिइक्खएणं-इन पदों की व्याख्या वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि के शब्दों में इस प्रकार है ___ -आउक्खएणं त्ति-आयुष्कर्मद्रव्यनिर्जरणेण।भवक्खएणं त्ति-देवगतिनिबंधनदेवगत्यादिकर्मद्रव्यनिर्जरणेण।ठितिक्खएणं त्ति-आयुष्कर्मादिकर्मस्थितिविगमेन।अर्थात् आयु शब्द से आयुष्कर्म के दलिकों (परमाणुविशेषों) का ग्रहण होता है। दलिकों या कर्मवर्गणाओं का क्षय आयुक्षय है। भव शब्द से देवगति को प्राप्त करने में कारणभूत नामकर्म की पुण्यात्मक देवगति नामक प्रकृति के कर्मदलिकों का ग्रहण है, अर्थात् देवगति को प्राप्त द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [951