SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 905
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वागत करना चाहिए और उनको आहार देते समय कैसी भावना को हृदय में स्थान देना चाहिए एवं आहार दे चुकने के बाद मन में किस हद तक सन्तोष प्रकट करना चाहिए इत्यादि गृहस्थोचित सद्व्यवहार की शिक्षा के लिए सुमुख गाथापति के जीवनवृत्तान्त का अध्ययन पर्याप्त है। हृष्ट तुष्ट-शब्द के १-हृष्ट-मुनि के दर्शन से हर्षित तथा तुष्ट-सन्तोष को प्राप्त अर्थात् मैं धन्य हूँ कि आज मुझे सुपात्रदान का सुअवसर प्राप्त होगा, इस विचार से सन्तुष्ट / २-अत्यन्त प्रमोद से युक्त, ऐसे अनेकों अर्थ पाए जाते हैं। सिंहासन के नीचे पैर रखने के एक आसनविशेष की पादपीठ संज्ञा होती है। पादुका खड़ाऊं का ही दूसरा नाम है। __-उत्त-यहां के बिन्दु से-उत्तरासंगं करेइ करित्ता-इस पाठ का ग्रहण करना चाहिए। उत्तरासंग का अर्थ होता है-एक अस्यूत वस्त्र के द्वारा मुख को आच्छादित करना। -सत्तटुपयाइं-सप्ताष्टपदानि-इस का सामान्य अर्थ-सात-आठ पांव-यह होता है। यहां पर मात्र सात या आठ का ग्रहण न करके सूत्रकार ने जो सात और आठ इन दोनों का एक साथ ग्रहण किया है, इस में एक रहस्य है, वह यह है कि जब आदमी दोनों पांव जोड़ कर खड़ा होता है, तब चलने पर एक पांव आगे होगा और दूसरा पांव पीछे / चलते-चलते जब अगले पांव से सात कदम पूरे हो जाएंगे तब उसी दशा में स्थित रहने से एक कदम आगे और एक पीछे, ऐसी स्थिति होगी, और तदनन्तर पिछले पांव को. उठा कर दूसरे पांव के साथ मिलाने से खड़े होने की स्थिति सम्पन्न होती है। ऐसे क्रम में जो पांव आगे था उस से तो सात कदम होते हैं और जिस समय पिछला पांव अगले पांव के साथ मिलाया जाता है, उस समय आठ कदम होते हैं / तात्पर्य यह है कि एक पांव से सात क़दम रहते हैं और दूसरे से आठ क़दम होते हैं। इसी भाव को सूचित करने के लिए सूत्रकार ने केवल सात या आठ का उल्लेख न कर के-सत्तट्ठपयाई-ऐसा उल्लेख किया है, जो कि समुचित ही है। _-तिक्खुत्तो आया०-यहां का बिन्दु-हिणं पयाहिणं करेइ करित्ता-इन पदों का संसूचक है। इन का अर्थ पदार्थ में दिया जा चुका है। प्रस्तुत में पढ़े गए-तिक्खुत्तो-इत्यादि पद वन्दना-विधि के पाठ का संक्षिप्त रूप है। वन्दना का सम्पूर्ण पाठ निम्नोक्त है "-तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेमि वंदामि नमसामि सक्कारेमि सम्माणेमि 1. वन्दना के द्रव्य और भाव से दो भेद पाए जाते हैं। उपयोगशून्य होते हुए शरीर के-दो हाथ, दो पैर और एक मस्तक-इन पांच अंगों को नत करना द्रव्यवन्दन कहलाता है, तथा जब इन्हीं पांचों अंगों से भावसहित विशुद्ध एवं निर्मल मन के उपयोग से वन्दन किया जाता है तब वह भाववन्दन कहलाता है। 896 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy